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आगाढ-आचारिअ पाइअसहमहण्णवो
१०७ आगाढ घि [आगाढ] १ प्रबल, दुःसाध्य; इवाइ वि [तिपातिन् ] विद्या प्रादि आपविय वि [दे] गृहीत, स्वीकृत (मए 'कडुगोसहंव आगाढरोगिरणो रोगसमदच्छे' (उप के बल से आकाश में गमन करनेवाला (प्रौप) २०)IV ७२८ टी); 'नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्ग- | आगासिथ वि [आकाशित] अाकाश को आघवेत्तग वि [आख्यापयितृक] उपदेष्टा, धीरण वा अन्नमन्नस्स मोए प्राइइत्तए, नन्नत्थ प्राप्त (पौप)
वक्ता (प्राचा) पागढेहि रोगायंकेहि (कस)। २ अपवाद, आगासिय वि [आकर्षित] खींचा हुआ आघस सक [आ + घस् ] थोड़ा घिसना। खास कारण (पंचभा)।३ अत्यन्त गाढ (निचू)। | (ौप)।।
माघसावेज (निचू)iv जोग पुं[योग] योग-विशेष, गणि-योग आगासिया स्त्री [आकाशिकी] प्राकाश में आघा सक [आ + ख्या] कहना । (प्राचा)। (प्रोष ५४८)। पण्ण न [प्रज्ञ] शास्त्र, गमन करने की लब्धि-शक्ति (सूअनि १६३) आघा सक [आ + घ्रा] सूंघना। वकृ. आघाआगमः 'पागाढपरणंसु य भावियप्पा' (वव)।
आगाह सक [अव + गाह.] अवगाहन | यंत (उप ३५७ टी)V सुय न [श्रुत आगम-विशेष (निचू) ।
करना, स्नान करना। आगाहइत्ता (दस ५, आघाय वि [आख्यात कथित, उक्त (प्राचा)। १, ३१)
आधाय वि [आख्यात] १ उक्त, कथित आगामि वि [आगामिन आनेवाला (सुपा आगिइ स्त्री [आकृति] आकार, रूप, मूर्ति | (सूत्र १, १३, २)। २ न. उक्ति, कथन (सूप
१, १, २,१) (सुर २, २२; विपा १, १)। आगार सक [आ+ कराय ] बुलाना, आह्वान
V
आघाय पुं[आघात] १ एक नरक-स्थान आगिट्टि स्त्री [आकृष्टि] आकर्षण (सुपा | करना । संकृ. आगारेऊण (आव) IV २३२)।
(देवेन्द्र २६)। २ विनाश (उक्त ५, ३२, सुख आगार न [आगार] १ घर, गृह (णाया १,
आगी देखो आगिइ; 'छिण्णावलिरुयगागी१; महा)। २ वि. गृहस्थ, गृही (ठा)। "त्थ
दिसासु सामाइयं न जं तासु' (विसे २७०७) आघाय पुं[आघात] १ वध। २ चोट, प्रहार वि [ स्थ] गृही (पि ३०९)
(कुमा; पाया १,६)V आगु पु [आकु] अभिलाष, इच्छा (आक) आगार पुं[आकार] १ अपवाद (उप ७२८
| आघायंत देखो आघा=आ + प्रा। आघं देखो आघव। 'सूत्रकृतांग' सूत्र के प्रथम टी पडि)। २ इंगित, चेष्टा-विशेष (सुर ११,
आघाव देखो आघव। प्राधावेइ (पि ८८; श्रुतस्कन्ध का दसवाँ अध्ययन (सूम १,१०)M२०२)TV १६२) । ३ प्राकृति, रूप (सुपा ११५)।
आघंस सक [आ + घृष ] घर्षण करना आगारिय वि [आगारिक] गृहस्थ-संबन्धी
आधुढ वि [आघुष्ट] घोषित, जाहिर किया (निचू)। (विसे)
हुआ (भवि) । आघंस सक [आ + घृष्] घिसना, थोड़ा | आधुम्म प्रक [आ + घूर्ण ] डोलना, आगारिय वि [आकारित] १ आहूत । २ |
घिसना । आघंसिज (आचा २, २, १, ४)। हिलना, कांपना, चलना। उत्सारित, परित्यक्त (आव)।।
आघंस वि [आघर्ष] जल के साथ घिसकर | आधुम्मिय वि [आपूर्णित] डोला हुआ, आगाल पुं [आगाल] १ समान प्रदेश में जो पिया जा सके वह (पिंड ५०२)। कम्पित, चलित; 'आधुम्मियनयणजुओ' (पउम रहना । २ सम भाव से रहना (प्राचा) । ३ | आघंसण न आघर्षण] एक बार का घर्षण | १०, २७८७,
| १०, ३२,८७, ५६)। उदीरणा-विशेष (राज)।
आघोस सक [आ + घोषय ] घोषणा आगास पुंन [आकाश] आकाश, अन्तराल
| आघयण न [दे] वध-स्थान (णाया १,६- करना, ढिंढोरा पिटवाना। आघोसेह (स १०)। (उवा) । 'गमा स्त्री [गमा] विद्या-विशेष, पत्र १६७)।।
आघोसण न आघोषण] ढिंढोरा, घोषणा जिसके बल से आकाश में गमन कर सकता है आघव सक [आ + ख्या] १ कहना, उपदेश
(महा)। (पउम ७, १४४) । गामि वि [°गामिन्]
देना। २ ग्रहण करना। प्राघवेइ (ठा)।
| आचक्ख सक [आ + चक्षु ] कहना। आकाश में गमन करने वाला, पक्षि-प्रभृति कवकृ. प्राधविजए (भग) । भूका. आघं (सूमः
___वकृ. आचक्खंत (पि २५, ८८; नाट)। (प्राचा)। जोइणी स्त्री ["योगिनी] पक्षि
पि ८८)। वकृ. आघवेमाण (पि ४४)। हेकृ. आचक्खिद (शौ) वि [आख्यात] उक्त, विशेष, 'पागासजोइपीए निसुप्रो सद्दोवि वामआघवित्तए (पि ८८)
कथित (अभि २००)।। पासम्मि' (सुपा १८५)। त्थिकाय पुं [स्तिकाय] आकाश-प्रदेशों का समूह,
आघवणा स्त्री [आख्यान] कथन, उक्ति आवरिय वि [आचरित] १ अनुष्ठित, विहित। अखण्ड पाकाश-द्रव्य (पएण १)। थिग्गलन (णाया १, ६)।
२ न. पाचरण (प्रासू १११)। [दे] मेघरहित आकाश का भाग (प्रावम)। | आघवइत्तु वि [आख्यायक] कथक, वक्ता, | आचाम सक [आ + चामय ] चाटना, फलिह, फालिय पुं [स्फटिक] निर्मल | उपदेशक (ठा ४, ४)AV
खाना, पीना । वकृ. प्राचामंत (कुप्र ३६) । स्फटिक-रत्न (रायः प्रौप)। फालिया स्त्री आघविय वि [आख्यात उक्त, कहा हुमा आचार देखो आयार = प्राचार (कुमा) । [फालिका] एक मीठा द्रव्य (परण १७)। ! (पि ४४)।
आचारिअ देखो आयरिय = आचार्य (प्राप)।
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