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आत्म-साक्षी
किं पर जण बहुजाणा, वणाहिं वरमप्प सक्खियं सुकयं ।
दूसरे की दृष्टि में धार्मिक बनने के लिए जो धर्म किया जाता है, वह निरर्थक है। इसलिए आत्म-साक्षित्व से धर्म करना चाहिये जोकि वस्तुतः शुभ फलदायी होगा।
-सार्थपोसहसज्झायसूत्र ( १६) अप्पा जाणाइ अप्पा, जहडियो अप्पसक्खिओ धम्मो। अप्पा करेइ तं तह, जह अप्पसुहावहं होई ॥ आत्मा ही आत्मा के शुभ-अशुभ परिणामों को जानता है। अतएव अपनी आत्म-साक्षिता से जो धर्म किया जाता है, हे आत्मन् ! वही उस आत्मा का वास्तविक धर्म सुखदायक सिद्ध होता है ।
-सार्थपोसहसज्झाय-सूत्र ( २२ )
आत्म-स्वरूप
अंतरतच्चं जीवो, बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि । आत्मा अन्तस्तत्त्व है, शेष सर्व द्रव्य बहिस्तत्त्व है ।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा (५)
एगे आया। स्वरूप-दृष्टि से सब आत्माएँ एक हैं।
–समवायांग (१/१) अन्ने खलु काम-भोगा, अन्नो अहमंसि । काम-भोग आदि जड़ पदार्थ और हैं, मैं आत्मा और हूँ।
-सूत्रकृताङ्ग ( २/१/१३)
आदा हुमे सरणं । . आत्मा ही मेरा शरण है ।
--मोक्ष-पाहुड़ (६५) ५४ ]
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