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तो देखो कि वे अधर्म को त्यागकर धर्मिष्ठ बन जाते हैं और अन्त में दिव्यदशा को प्राप्त करते हैं ।
-उत्तराध्ययन (७/२६) धम्म पि हु सद्दहन्तया, दुलहया कारण फासया,
इह कामगुणेहिं मुच्छिया । उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करनेवाले दुर्लभ हैं । बहुत से धर्म-श्रद्धालु काम-गुणों में ही मूञ्छित रहते हैं ।
-उत्तराध्ययन ( १०/२०) . जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं ।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी ॥ जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिये, क्योंकि विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है ।
-मरणसमाधि (२६६) निच्छयमवलंबंता, निच्छयतो निच्छयं अयाणंता।
नासंति चरण करणं, बाहिरकरणालसा केइ ॥ जो निश्चय दृष्टि से आलम्बन का आग्रह तो रखते हैं ; परन्तु वस्तुतः उसके सम्बन्ध में कुछ जानते-बूझते नहीं हैं, वे आचरण की व्यवहार-साधना के प्रति उदासीन हो जाते हैं और इस प्रकार सदाचार को ही मूलतः नष्ट कर डालते हैं।
-ओघनियुक्ति (७६१) वायार जं कहणं गुणाण तं णासणं हवे तेसि ।
होदि हु चरिदेण गुणाण कहण मुब्भासणं तेसिं ॥ __ वचन से अपने गुणों को कहना उन गुणों का नाश करना है और आचरण से गुणों का प्रकट करना उनका विकास करना है ।
-अर्हत्प्रवचन ( ६/७) ४६ ]
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