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दंसणवओ हि सफलाणि, हुंति तवनाणचरणाई । सम्यग्दृष्टि के ही तप, ज्ञान, तथा चारित्र पूर्ण सफल होते हैं ।
- आचारांग - नियुक्ति ( २२१ )
सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा । सम्यक्त्व का आचरण करने वाले समस्त दुःखों का क्षय करते हैं । -चारित पाहुड़ (२० )
जं मोणं तं सम्म तमिह होइ मोणं ति । निच्छयओ इयरस्स उ सम्म सम्मत्त हेउ वि ॥ परमार्थतः मौन ही सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व ही मौन है । तत्त्वार्थ श्रद्धान् लक्षणवाला व्यवहार सम्यक्त्व इसका हेतु है ।
- सावयपण्णत्ति ( ६१ )
लग्भइ सुरसामित्तं लब्भइ पहुअत्तणं न संदेहो | एगं नवरि न लब्भइ, दुल्लहरयणं व सम्मत्तं ॥
देवों का स्वामीत्व और ऐश्वर्य प्रभुता भी मिल सकती है, किन्तु जीव को संसार में अमूल्य रत्न तुल्य सम्यक्त्व - रत्न मिलना निःसन्देह दुर्लभ है । - संबोधसत्तरि ( २२ )
सम्यक्त्व
रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तमं जोयं । रिद्धीण महारिद्धी, सम्मत्तं सव्वसिद्धि परं ॥
सम्यक्त्व सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महाऋद्धि है और सब सिद्धियों में श्रेष्ठ है ।
--कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३२५ )
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पुण्णपावं सम्मत्तं ॥
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य आसव संवरणिजरबंधो
मोक्खो
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