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दर्शनाचार के आठ भेद हैं-निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सित, अमढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ।।
-श्रमण-प्रतिक्रमण-सूत्र (६)
सम्यग्दृष्टि
सम्मदिट्टी जीवो, जइवि हु पावं समायरइ किंथि ।
अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्धधसं कुणइ ॥ सम्यग्दृष्टि-युक्त जीव को अपने अधिकार के अनुसार कुछ पापारम्भ अवश्य करना पड़ता है, पर वह जो कुछ करता है उसमें उसके परिणाम कठोर या दया-हीन नहीं होते। इसलिए उसको कर्म का बन्ध औरों की अपेक्षा अल्प ही होता है।
-वन्दित्तु-सूत्र (३६) जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिजर णिमित्तं । सम्यग्ददृष्टि साधक जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों की निर्जरा के निमित्त ही होता है ।
-समयसार ( १६३) सम्मदिट्ठी जीवा, णिस्संका होति णिब्भया तेण । सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं और इसी कारण निर्भय भी होते हैं ।
-समयसार ( २२८) जो दु ण करेदि कंखं, कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु ।
सो णिक्कंखो चेदा, सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥ जो सम्पूर्ण कर्मफलों में और वस्तु-धर्मों में किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता, उसी को निरकांक्ष सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये ।
-समयसार ( २३०) जो ण करेदि जुगुप्पं, चेदा सव्वेसिमेण धम्माणं ।
सो खलु णिविदिगच्छो, सम्मादिठी मुणेयव्वो॥ २८४ ]
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