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सन्तोष देविंदचकवट्टि-तणाइ रज्जाइ उत्तमा भोगा।
पत्ता अणंतखुत्तो, न य ह तित्ति गओ तेहिं ॥ देवपन, इन्द्रपन, चक्रवर्तीपन और राज्य आदि के उत्तम भोगों को मैंने अनंत बार पाया है, परन्तु अभी तक मैंने इनसे लेश मात्र भी तृप्ति नहीं पाई है।
-इन्द्रियपराजय-शतक (१६) सचग्गंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो अ।
जं पावइ मुत्तिसुह, न चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥ सर्व ग्रन्थियों से रहित, विषय के विकारों से उपशान्त तथा समता से प्रशान्त चित्तवाले व्यक्ति भी संतोष से जो सुख प्राप्त करता है, वह सुख चक्रवर्ती भी नहीं पा सकता।
-इन्द्रियपराजयशतक (४५) समसंतोस-जलेण य, जो धोवदि तिण्णलोहमलपुंज ।
भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥ __ जो मनुष्य समताभाव और सन्तोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पंज को प्रक्षालित करता है और भोजन में गृद्ध नहीं होता, उसके निर्मल शौचधर्म होता है।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ३६७) ___ असंतुट्ठाणं इह परत्थ य भयंति । सन्तोष-शून्य व्यक्ति को यहाँ-वहाँ सर्वत्र भय रहता है ।
-आचारांग-चूर्णि ( १/२/२) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
दो मासकणयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ना है। देखो ! जिस कपिल ब्राह्मण को पहले केवल दो माशा स्वर्ण की अभिलाषा थी, राजा का आश्वासन पाकर वह लोभ बाद में करोड़ों से भी पूरा न हो सका।
-उत्तराध्ययन ( ८/१७) २७४ ]
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