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विशुद्ध स्वभावी सज्जन दुर्जन द्वारा लांछित या मलिन किये जाने पर भी, वैसे ही अधिक निर्मल हो जाता है, जैसे छार से दर्पण |
- वज्जालग्ग (४/२)
सुयणो न कुप्पइ श्चिय अह कुप्पइ मंगुलं न चिंतेइ I अह चिंते न जंपर अह जंपइ लज्जिरो होइ ॥ सज्जन क्रोध ही नहीं करता है, यदि करता है तो अमंगल नहीं सोचता, यदि सोचता है तो कहता नहीं और यदि कहता है तो लज्जित हो जाता है । - वज्जालग्ग ( ४ / ३ )
दढरोस कुलसियस वि सुयणस्स मुहाउ विप्पियं कत्तो । राहुमुहम्मि वि ससिणो किरणा अमयं खिय मुयंति ॥
दृढ़ रोष से कलुषित होने पर भी सज्जन के मुँह से अप्रिय वाणी कहाँ से निकल सकती है ? चन्द्रमा की किरणें राहु के मुँह में भी अमृत ही - टपकाती है ।
सव्वस एह पयई पियम्मि उप्पाइए सुयणस्स एह पयई अकए वि पिए प्रिय करने पर प्रिय करना - यह सभी की प्रकृति है, परन्तु प्रिय न करने पर भी प्रिय करना - यह सज्जनों की प्रकृति है ।
- वज्जालग्ग ( ४/४ )
पियें काउं । पियें काउं ॥
सज्जन के बहुत से गुणों से क्या प्रयोजन ? है— बिजली की कौंध के समान क्षणभंगुर क्रोध चिरस्थायिनी मैत्री ।
दोहिं खिय पजतं बहुपहि वि कि गुणेहि सुयणस्स । बिज्जुप्फुरियं रोसो मित्ती
पाहाणारेह
व्व ॥
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- वज्जालग्ग (४ / ८ )
उसके ये दो गुण ही पर्याप्त और पाषाण रेखा के समान
रे रे कलिकाल महागईंद गलगजियस्स को कालो । अज्ज वि सुपुरिसकेसरिकिसोर चलणंकिया पुहवी ॥
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- वज्जालग्ग (४/११ )
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