SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जस्सेवमप्पा उ हवेज निच्छिओ, चइज देहं न हु धम्मसासणं । तं तारिसं नो पइलेन्ति इन्दिया, उविंतवाया व सुदंसणं गिरिं॥ जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़ निश्चयी हो कि यह शरीर भले ही चला जाय, परन्तु मैं अपना धर्म-शासन छोड़ नहीं सकता, उसे इन्द्रियविषय कभी भी विचलित नहीं कर सकते, जैसे सुमेरु पर्वत को भीषण बवंडर । -दशवैकालिक चूलिका ( १/१७ ) जं सक्कइ तं कीरइ, जं न सक्कइ तयम्मि सहहणा। सइहमाणो जीवो, वच्चइ अयरामरं ठाणं ॥ जिसका आचरण हो सके, उसका आचरण करना चाहिए एवं जिसका आचरण न हो सके, उस पर श्रद्धा रखनी चाहिये । धर्म पर श्रद्धा रखता हुआ जीव जरा एवं मरणरहित मुक्ति का अधिकारी होता है । -धर्मसंग्रह ( २/२१) श्रमण एवं श्रमणधर्म एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्ते सणे रया। लोक में जो मुक्त (अपरिग्रही), श्रमण-साधु हैं वे दान-दाता गृहस्थ से उसी प्रकार दानस्वरूप भिक्षा आदि लें जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से रस लेता है। __ ---दशवकालिक (१/३) वयं च वित्ति लब्भामो, नय कोइ उवहम्मई । साधक जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की इस प्रकार पूर्ति करें कि किसी को कुछ कष्ट न हो। - दसवैकालिक ( १/५) नाणेण य झाणेण य, तपोबलेन य बला निरु भत्ति । इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहि ॥ [ २५३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy