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धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भाव धम्मं किं ते लिंगेण कायव्यो । धर्म से लिंग होता है पर लिंगमात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। हे भव्य ! तू भाव-रूप धर्म को जान ! केवल लिंग से तुझे क्या प्रयोजन !
-लिंगपाहुड़ (२) भावोहि पढमलिंगं, ण दव लिंगं च जाण परमत्थं । वस्तुतः भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग हैं । द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं हैं।
-भावपाहुड़ (२) धम्म रक्खइ वेसो, संकइ वेसेण दिक्खिओमि अहं ।
उम्मग्गेण पडतं, रक्खइ राया जणवओ य॥ जिस प्रकार राजा कुमार्गगामी मनुष्य को दण्डादि व्यवस्था से ठीक रास्ते 'पर लाता है, उसी प्रकार वेश धर्म को व्यवस्थित रखता है और यह भी इससे खयाल रहता है कि मैं दीक्षाधारी हूँ।
-सार्थपोसह सज्झाय सूत्र (२१)
वेशधारी सीआवेइ विहारं, सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धिओ।
सो नवरि लिङ्गधारी, संजमजोएण निस्सारो॥ जो अज्ञानी आरामतलबी में पड़कर विहार करने में दुःख मानता है वह संयम से रहित केवल वेषधारी है ।
-गच्छाचार प्रकीर्णक (२३) कुलगामनगररज्जं पयहिअ जो तेसु कुणइ हु ममत्तं ।
सो नवरि लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ॥ कुल, ग्राम, नगर, अथवा किसी राज्य में जाकर तथा वहाँ रहकर जो उस पर ममत्व भाव रखता है वह संयमसार से रहित केवल वेषधारी है ।
-~- गच्छाचार प्रकीर्णक (२४)
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