________________
- जिस प्रकार अन्धा मार्गदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है। अतः जो कुछ बोले-बुद्धि से परख कर बोलें ।
- व्यवहार-भाष्य-पीठिका (७६)
णेहरहितंतु फरुसं। स्नेहशून्य वचन ‘कठोर वचन' है।
-निशीथ भाष्य ( २६०८) पेसुण्हासकक्कस - परणिदाप्पप्पसंसा - विकहादी।
वज्जित्ता सपरहियं, भासासमिदी एवे कहणं ॥ पैशून्य, हास्य, कर्कश-वचन, परनिन्दा, आत्मा-प्रशंसा, विकथा, आदि का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना ही भाषा-समिति है ।
-मूलाचार (१/१४) न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरठें न मम्मयं ।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा॥ अपने लिए अथवा दूसरों के लिए, अथवा दोनों में से किसी के लिए भी पूछने पर पाप-युक्त, निरर्थक एवं मर्म-भेदक वचन नहीं बोलना चाहिये।।
--उत्तराध्ययन (१/२५), वयगुत्ताए णं णिव्विकारत्तं जणयई। वचन-गुप्ति से निर्विकार-स्थिति उत्पन्न होती है ।
-उत्तराध्ययन ( २६/५४), अणुचिंतिय वियागरे। पहले विचारो, फिर बोलो।
-सूत्रकृताङ्ग (१/६/२५) सयं समेच्चा अदुवा वि सोञ्चा,
भासेज धम्म हिययं पयाणं ॥ स्वयं ही समझकर अथवा प्रबुद्ध व्यक्तियों से सुनकर, प्रजा हितकारी तथा धर्ममयी भाषा बोले।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१३/१६)
२४०
]
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org