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ऐसा तो नहीं हो सकता कि रस जिह्वाप्रदेश में आए और वह उसको चखे नहीं, किन्तु उन रसों के प्रति जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उसका परित्याग करे।
-~-आचारांग ( २/३/१५/१३३) ण सक्का ण संवेदेतुं फासं विषयमागतं ।
राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खु परिवज्जए। स्पर्शेन्द्रिय-विषय प्रदेश में आए स्पर्श का संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है, अतः भिक्षु उन मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर उनमें उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष का त्याग करे, यही अभीष्ट है।
--आचारांग ( २/३/१५/१३४ )
राजलक्ष्मी गयकण्ण चंचलाए, अपरिच्चताइ रायलच्छीए । जीवासकम्म कलिमल, भरिय भरातो पडंति अहे । अपरिचित तथा अपने कर्म रूप मैल के बोझ से नीचे की ओर ले जाने वाली हाथी के कर्ण की तरह चञ्चल राजलक्ष्मी भी जीवों को 'अधोगति प्रदान करती है।
-सार्थपोसह-सज्झाय-सूत्र (३२) न महुमहणस्स वच्छे मज्झे कमलाण नेय खीरहरे ।
ववसायसायरे सुपुरिसाण लच्छी फुडं वसइ ।। लक्ष्मी न तो विष्णु के वक्षस्थल पर रहती है, न कमलों के मध्य में और न क्षीरसिन्धु में। वह तो प्रकट रूप से सत्पुरुषों के व्यवसाय-सागर में निवास करती है।
-वज्जालग्ग (१०/१२)
रात्रि-भोजन अत्थंगयंमि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए। आहारमाइयं सव्वं, मणमा वि न पत्थए ।
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