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उसी प्रकार कर्म रूपी बीजों के दग्ध हो जाने पर भव रूपी अंकुर फिर उत्पन्न नहीं होते । अर्थात् मुक्त जीव फिर जन्म धारण नहीं करते।
-दशाश्रुतस्कन्ध (५/१५) अविहफम्मवियडा, सीदी भूदा णिरंजना णिच्चा। अट्ठगुणा कयकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥
सिद्ध अष्टकर्मों से रहित, सुखमय, निरंजन, नित्य, अष्ट गुण-सहित तथा कृतकृत्य होते हैं और सदैव लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं।
-पंच संग्रह ( १/३१)
चक्किकुरुफणिसुरेंदेसु, अहमिदे जं सुहं तिकालभवं ।
तत्तो अंणतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि । चक्रवर्तियों को उत्तर कुरु, दक्षिण कुरु आदि भोग भूमि वाले जीवों को तथा फणीन्द्र सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रो को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है, उस सबसे भी अनन्त गुना सुख सिद्धों-मुक्त आत्माओं को एक क्षण में अनुभव होता है।
-त्रिलोकसार (५६०) विमुक्का हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो। वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं, जो विषय दलदल के पारगामी है।
--आचारांग ( १/२/२)
मैत्री
मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मजझं न केणइ । सब जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी भी जीव के साथ वैरविरोध नहीं है।
-आवश्यक सूत्र ( वंदित्तु,५०) मित्तं पयतोयसमं सारिच्छं जे न होइ किं तेण ।
अहियाएइ मिलंतं आवइ आवट्टए पढमं ॥ २२२ ।
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