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ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य विदाणं समो य सव्वेसि । णत्थि य रागद्दोसा,, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स ॥
पक्षपात-रहित होना, भोगों की आकांक्षा न करना, सबमें समदर्शी रहना और राग-द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना ही शुक्ललेश्या के भाव हैं ।
-गोम्मटसार-जीवकाण्ड (५१७)
मनोविजय निग्गहिए मणपसरे, अप्पा परमप्पा हवइ । मन के विकल्पों पर प्रतिबन्ध लगाने पर आत्मा, परमात्मा बन जाता है ।
-आराधना-सार (२०) मणणवइए मरणे, मरंति सेणाइं इंदियमयाई । मन रूपी राजा की मृत्यु होने पर इन्द्रियाँ रूपी सेना तो स्वयं ही मर जाती है।
-आराधना-सार ( ६० ) सुण्णीकयम्मि चित्ते, णूणं अप्पा पयासेइ । मन को विषयों से खाली कर देने पर उसमें आत्मा का आलोक झलकने लगता है।
-आराधना-सार (७४) मणं परिजाणइ से निग्गंथे। जो स्वयं मन को भलीभांति परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधक है।
-आचाराङ्ग ( २/३/१५/१)
मनस्वी तुंगो चिय होइ मणो मणसिणो अंतिमासु वि दसासु ।
अत्यंतस्स वि रइणो किरणा उद्ध चिय फुरंति ॥ मनस्वियों का मन अन्तिम दशा में भी उन्नत ही रहता है। अस्त होते समय भी सूर्य की किरणें ही चमकती हैं।
-वजालग्ग (६/१२)
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