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माणुसत्तम आयाओ, जो धम्मं सोच्य सद्दहे । तवस्ती वीरियं लधुं संबुडे निण रयं ॥
यथार्थ में मनुष्य उसे ही समझना चाहिये, जो धर्म वचन सुने, उनमे विश्वास करे और तदनुसार आचरण द्वारा तपस्वी बन संवर' का आचरण और अपने ऊपर चिपके हुए पाप- मल को झाड़कर फेंकने का पुरुषार्थं करें । - उत्तराध्ययन. ( ३/११
सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्ते व्व पावए ॥
सरल मनुष्य शुद्धि प्राप्त कर सकता है । धर्म स्थिर रह सकता है, जैसे जिसमें धर्म है, परम निर्वाण / परम दीप्ति को प्राप्त होता है ।
मनुष्य
जो मानव शुद्ध है, उसके चित्त वह घृत से सिक्त अग्नि की भाँति
- उत्तराध्ययन ( ३ / १२ )
जे पावकस्मेहि धणं मणुस्सा, समाययन्ति अमयं गहाय । पहाय ते पासपर्यट्टिए नरे, वेराणु बद्धा नरयं उवेन्ति ॥
जो मनुष्य पाप कर्मों द्वारा धन को अमृत के समान समझकर प्राप्त करते हैं, वे राग, द्वेष, तृष्णादि दोषों में फँसते हैं । अन्त में धन तो यहीं रह जाता कमाते है और उन्हें कूच कर जाना पड़ता है। ऐसे मनुष्य समाज में वैर बाँध कर अन्त में नरक गति प्राप्त करते हैं ।
मण्णंति जदो णिच्च पणेण णिउणा जदो दु ये जीवो । मण उक्कडा य जम्हा ते माणुसा भाणिया
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- उत्तराध्ययन (४/२ )
वे मनुष्य कहलाते हैं जो मन के द्वारा नित्य ही हेय उपादेय, तत्त्वअतत्त्व तथा धर्म-अधर्म का विचार करते हैं, कार्य करने में निपुण हैं और उत्कृष्ट मन के धारक हैं ।
१. संवर : आस्रवों को रोकना, अनासक्त आत्मा की शुद्ध प्रवृत्ति ।
- पञ्चसंग्रह ( १/६२ )
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