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सवाणि य।
कूइयं रुड्यं गीयं, हासियं थणिय-कन्दियं ।
बंभचेररओ थीणं, सोयगेज्झं विवज्जए । ब्रह्मचर्य-परायण भिक्षु को स्त्रियों के कूजन (अव्यक्त आवाज ), रोदन, गीत, हास्य, चित्कार और करुण-क्रन्दन-जिनके सुनने से विकार उत्पन्न होते हैं, सुनने नहीं चाहिए । उस ओर कान ही नहीं देने चाहिए ।
-उत्तराध्ययन ( १६/५) हासं किड्डं रई दप्पं, सहसाऽवत्तासियाणि य ।
बंभचेररओ थीणं, नाणुचिंते कयाइ वि ॥ ब्रह्मचर्य-परायण भिक्षु को पूर्वावस्था में अनुभूत स्त्रियों के हास्य, क्रीड़ा, रति, दर्प और उल्लास के लिए की गयी अकस्मात छेड़छाड़ का अपने मन में कभी विचार तक नहीं लाना चाहिए ।
-उत्तराध्ययन ( १६/६) पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मय विवड्ढणं।
बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवजए॥ ब्रह्मचर्य-परायण भिक्षु को ऐसे प्रणीत भोजन और पान जिनमें चिकनाई के रसदार पदार्थ अत्यधिक हों और शीघ्र उद्दीपक हों, उसे निरंतर त्याग ही करना चाहिए।
- उत्तराध्ययन (१६/७) धम्मलद्ध मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं ।
नाइमत्तं तु भुंजेज्जा, बंभचेररओ सया ।। ब्रह्मचर्य-परायण साधक को धर्मपूर्वक प्राप्त, परिमित, शास्त्रनिर्दिष्ट उचित समय पर संयम के निर्वाह के लिए ही ऐसा भोजन ग्रहण करना चाहिए, नो संतों द्वारा निर्दिष्ट मर्यादा से न न्यून हों और न अधिक, ऐसे भोजन से ही उसकी ध्यान-समाधि सुरक्षित रह सकेगी।
-उत्तराध्ययन ( १६/८) विभूसं परिवेजा, सरीर परिमंडणं ।
बंभचेर रओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥ १६. ]
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