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________________ मोतूण वयणरयणं, किच्चा । रागादीभाव वारणं - अप्पाणं जो शायदि, तस्स दु होदि त्ति पडिक्कमणं ।। वचन - रचना मात्र को त्याग कर जो साधक रागादि भावों को दूर कर -आत्मा का ध्यान करता है, उसी के प्रतिक्रमण होता है । - नियमसार (८३) पडिकमणपहुदिकिरियं, कुब्बंतो तेण णिच्छयस्स वारितं । दु विराग चरिण, समणो अम्भट्ठिदो होदि ॥ जो निश्चय चारित्र स्वरूप प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करता है, वह श्रमण वीतराग चारित्र में समुत्थित या आरूढ़ होता है । -- नियमसार ( १५२ ) जदि सक्कदि कादु जे, पडिकमणादि करेज्ज झाणमयं । यदि करने की शक्ति और सम्भावना हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करना चाहिये । कम्मं न पुग्वकयं सुहासुह मणेय ततो नियन्तदे अप्पयं तु जो सो पूर्वकृत कर्मों के शुभ-अशुभ रूप भावों से प्रतिक्रमण है । २७४ ] Jain Education International 2010_03 - नियमसार ( १५४ ) वित्थर विसेसं । पडिक्कमणं ॥ आत्मा को पृथक करना - समयसार (४०३ ) परुसो सक्कअबंधो पउअबंधो वि होउ पुरिसमलिहाणं जेत्तिअमिह तरं संस्कृत रचनायें कठोर होती हैं और प्राकृत रचनाएँ सुकुमार । पुरुषों और महिलाओं में जितना अन्तर है, उतना ही इन दोनों भाषाओं में है । - कर्पूरमञ्जरी (१/७ ) प्राकृत-काव्य For Private & Personal Use Only सुउमारो । तेत्तिअमिमाणं ॥ www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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