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सुहअसुह भावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा । शुभ-परिणामों से युक्त जीव पुण्य रूप होता है और अशुभ-परिणामों से युक्त जीव पाप रूप होता है ।
-द्रव्यसंग्रह (३८/१५८) पुण्णं मोक्ख गमण विग्घाय हवति । परमार्थ-दृष्टि से पुण्य भी मोक्ष-प्राप्ति में बाधक है ।
-निशीथ-चूर्णि ( ३३२६) रागो जस्स पसत्थो, अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्तम्हि णस्थि कलुसं, पुणं जीवस्स आसबदि । जिसका राग प्रशस्त है, हृदय में अनुकम्पा की वृत्ति है और मन में कलुषभाव नहीं है, उस आत्मा को पुण्य की प्राप्ति होती है ।
-पंचास्तिकाय ( १३५) इह लोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफल विवाग संजुत्ता भवंति । ____ इस जीवन में किये हुए सत्कर्म इस लोक में और परलोक में भी सुखदायी होते हैं।
-स्थानांग (४/२) मं पुणु पुण्णई, भल्लाई, णाणिय ताई भणंति । जीवहं रजई देवि लहु, दुक्खई जाई जणंति ।। वह (पापानुबन्धी ) पुण्य भी किसी काम का नहीं जो मनुष्य को राज्यसुख देकर उसमें आसक्ति उत्पन्न करा देता है, जिसके कारण ( पुण्य क्षीण हो जाने पर) शीघ्र ही वह नरक आदि गतियों के दुःखों को प्राप्त हो जाता है।
-परमात्मप्रकाश ( २/५७)
पुण्य-पाप
सुचिण्णा कम्मा, सुचिण्णफला भवंति । दुधिण्णा कम्मा, दुधिण्णफत्ता भवंति ॥
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