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नहु पावं हवइ हिवं ।
विसं जहा जीवियत्थिस्स ॥ जैसे कि जीवितार्थियों के लिए विष हितकर नहीं होता है, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं है ।
-मरण-समाधि ( ६१३) पासयति पातयति वा पापं । जो आत्मा को गिराता है, अथवा बाँधता है, वह पाप है ।
. -उत्तराध्ययन-चूर्णि ( अध्ययन २) पावोगहा हि आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो। पाप के अनुष्ठान अन्त में दुःख ही देते हैं ।
-सूत्रकृतांग (१/८/७) जहवा विसगंडूसं, कोई घेत्तूण नाम तुहिको।
अण्णेण अदीसंतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा ।। जिस प्रकार कोई व्यक्ति चुपचाप लुक-छिपकर विषपान करता है तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा ? उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नहीं होगा ? .
वर जिय पावई सुन्दरई, णाणिय ताई भणंति ।
जीवहं दुक्खई जणिधि नहु, सिधमइ जाई कुणंति ॥ ज्ञानी की दृष्टि में तो वह पाप भी बहुत अच्छा है, जो जीव को दुःख व विषाद देकर उसकी बुद्धि मोक्षमार्ग की ओर मोड़ देता है।
-परमात्मप्रकाश ( २/५६)
पापी एवमावट जोणीसु, पाणिणो कम्मकिविसा। पाप-कर्म करनेवाले प्राणी बार-बार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते रहते है।
-उत्तराध्ययन (३/५)
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