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जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचन-कायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है।
-पंचास्तिकाय (१४६) णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा ॥ वही साधक आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में चिन्तवन करता है कि मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' (पदार्थ का भाव ) मेरे हैं, मैं तो एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ।
-प्रवचनसार ( २/६६) झाणढिओ हु जोई जइणो, संवेय णियय अप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्ध, भग्गविहीणो जहा रयणं ॥ ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को वैसे ही प्राप्त नहीं कर सकता ; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता।
-प्रवचनसार भावेज्ज अवस्थतियं, पिंडत्थ - पयस्थ-रूवरहियत्तं ।
छउमत्थ - केवलितं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो॥ ध्यान करनेवाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। पिंडस्थ ध्यान का विषय है छद्मस्थत्व-शरीर-विपश्यत्व । पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व-केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचिंतन और रूपातीत ध्यान का विषय है सिद्धत्व-शुद्ध-आत्मा ।
-चैत्यवंदनभाष्य (११) लवण व्व सलिलजोए, प्राणे चित्तं विलीयए जस्स । तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ ॥ जैसे पानी का संयोग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प ध्यान समाधि में लीन हो जाता है, उसकी चिर संचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली, आत्म रूप अग्नि प्रकट होती है ।
-आराधनासार (८७) १५६ ]
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