________________
चेष्टा रूप मत्स्य आदि जलचर-जीव हैं और मद रूपी जिसमें मगरमच्छ रहते है ऐसे तारुण्य रूपी समुद्र को धीर पुरुष ही पार किये हैं।
-इन्द्रियपराजयशतक (४३) अकम्मुणा कम्म खवेति धीरा। धीर पुरुष अकर्म के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१२/१५) सुगमंवा दुग्गमंवा कुणेइ किं धीरपुरिसाण । सरल अथवा कठिन कार्य धैर्यशाली पुरुषों के लिए क्या बाधक हो सकते हैं ?
–पाइअकहासंगहो (२३)
ध्यान छिदंति भावसमणा, झाणकुठारेहिं भवरुक्खं । वे ध्यान रूप कुठार से भववृक्ष को काट देते हैं जो भाव से श्रमण हैं।
-भावपाहुड़ ( १२२) तह रायानिलरहिओ,
झाण पईवो वि पज्जलई। हवा से रहित स्थान में जैसे दीपक निर्विघ्न जलता रहता है, वैसे ही राग की वायु से मुक्त रहकर आत्ममंदिर में ध्यान का दीपक सदेव जलता रहता है।
-भावपाहुड़ ( १२३) सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य ।
सव्वस्स साहू धम्मस्स तहा साणं विधीयते ॥ जिस प्रकार शरीर में मस्तक का तथा वृक्ष में उसकी जड़ का महत्त्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार आत्मधर्म की साधना में ध्यान का प्रमुख स्थान है।
-इसिभासियाई (२१/१३) झाणमेव हि, सम्वऽदिवारस्स पडिक्कमणं । १५४ ]
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org