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आलस मोहवण्णा थंभा कोहा पमाय किवणता । भयसोगा अण्णाणावक्खेव कुतुहलारमणा ॥ एतेहिं कारणेहि लद्ध ण सुदुल्लह पि माणुसं । ण लहइ सुति हियकरिं संसारुत्तारणी जीवो।।
(१) आलस्य, (२) मोह, (३) अवज्ञा, (४) अभिमान, (५) क्रोध, (६) प्रमाद, (७) कृपणता-दरिद्रता, (८) भय, (९) शोक, (१०) अज्ञान (११) उपेक्षा (१२) कुतुहल (१३) अरमणताइन तेरह कारणों से जीव सुदर्लभ मनुष्य-भव या मनुष्यता पाकर भी संसार से तारनेवाले हितकारी धर्म-श्रवण को प्राप्त नहीं करता।
-आवश्यक सूत्र माणुस्सं विग्गहं लद्ध, सुती धम्मस्स दुल्लहा।
जं सोवच्चा पडिवज्जन्ति, तवं खंति महिंसयं । भयंकर कष्टों के पश्चात् मनुष्य-जन्म मिल गया तो भी तप, क्षमा और अहिंस्रता के संस्कार चित्त में स्थिर करनेवाले धर्म-वचनों का सुनना महादुर्लभ है।
-उत्तराध्ययन ( ३/८) अहीणपंचेंदियत्तं पि से लहे,
उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा ।। पांचों इन्द्रियों को परिपूर्ण पाकर भी उत्तम धर्म का श्रवण बड़ा कठिन है।
-उत्तराध्ययन (१०/१८) सोच्चा जाणाइ कल्लाणं, सोचा जाणाइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोचा, जं सेयं तं समायरे ।। मनुष्य श्रवण करके ही कल्याण को जान पाता है और श्रवण द्वारा ही पाप को। दोनों को सुनकर ही जानता है और फिर जो श्रेयस्कर मार्ग होता है, उस पर चल पड़ता है।
—दशवैकालिक (४/११)
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