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तस्स मुहुग्गदवयण, पुव्वावरदोसविरहियं सुद्ध।
आगममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवंतितच्चत्था ॥ अहंव के मुख से उद्धृत, पूर्वांपर दोष-रहित शुद्ध वचनों को आगम कहते हैं। उस आगम में जो कहा गया है, वही तत्त्वार्थ है।
-नियमसार (८)
तप अथिरं पि थिरं वंक पि उजुअं दुल्लहं पि तह सुलह । दुस्सझपि सुसज्झं, तवेण संपज्जए कजं ॥
तप के प्रभाव से अस्थिर हो तो भी वह स्थिर हो जाता है । वक्र हो तो भी वह सरल बन जाता है। दुर्लभ हो तो भी वह सुलभ हो जाता है और दुःसाध्य हो तो भी वह सुसाध्य बन जाता है।
-तपःकुलकम् (३) जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए ।
जो अतवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो॥ जो शास्त्राभ्यास-स्वाध्याय के लिए अल्प-आहार करते हैं, वे आगम में तपस्वी माने गये हैं। श्रुतविहीन तप तो केवल भूख का आहार करना है, भूखे मरना है।
-मरणसमाधि ( १३०) सो नाम अणसणतवो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायति ॥ वही अनशन तप श्रेष्ठ है, जिससे कि मन अमङ्गल न सोचे। इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य की योग-धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए ।
- मरणसमाधि ( १३४) नो पूयणं तवसा आवहेजा। तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करनी चाहिये ।
-~-सूत्रकृताङ्ग ( १/७/२७) १२८ ]
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