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नहीं हो सकता मौर हर कोई सिद्धान्त को जाननेवाला भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने के योग्य प्रवक्ता नहीं हो सकता।
-सन्मति-प्रकरण (३/६३) सुयनाणम्मि वि जीवो, वट्टतो सो न पाउणति मोक्खं । जो तवसंजममइए, जोगे न बहइ वोढुं जे॥
यदि श्रुतशान में निमग्न जीव भी तप-संयमरूप योग को धारण करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ।
--विशेषावश्यक-भाष्य ( १९४३) सक्किरिया विरहातो, इच्छितसंयावयं ण नाणं ति ।
मग्गण्णू वाऽचेट्ठो, वात विहीणोऽधवा पोतो ॥ सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का जानकार व्यक्ति इच्छित देश की प्राप्ति के लिए समुचित प्रयत्न न करे तो वह गन्तव्य स्थल तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु के अभाव में जलपोत इच्छित स्थान तक नहीं पहुंच सकता।
-विशेषावश्यक-भाष्य ( १९४४) हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलोदड्ढो, घावमाणो अ अंधओ॥ क्रियाहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान-हीन क्रिया। जैसे वन में अग्नि लगने पर पंगु उसे देखता हुआ और अन्धा दौड़ता हुआ भी दावानल से बच नहीं पाता, जलकर नष्ट हो जाता है।
-विशेषावश्यक-भाष्य ( ११५६) न संतसंति मरण'ते, सीलवन्ता बहुस्सुया । जो साधक शीलवान और बहुश्रुत है वह मृत्यु के समय में भी संत्रस्त नहीं होता है।
-उत्तराध्ययन (५/२६ ) ताणं णाणणस्थ विज्जाचरणं सुचिणं । ज्ञान-संपत्ति और आचरण-संपत्ति के सिवा और कोई ऐसी संपत्ति नहीं है, जो किसी भिक्षु को दुराचार से बचा सके ।
-~-सूत्रकृताङ्ग (१/१३/१२) १२० ]
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