________________
क्या करोड़ों दीपक प्रज्ज्वलित कर देने पर भी अन्धे को कोई प्रकाश प्राप्त हो सकता है ?
___-आवश्यकनियुक्ति (६८) अब्बं पि सुयमहीयं, पयासयं होइ चरणजुत्तस्स । इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्सा पयासेइ ॥
शास्त्र का सामान्य अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाशदायक होता है। जिसके चक्षु खुले हैं, उसे एक दीपक भी अपेक्षित प्रकाश दे देता है ।
-आवश्यकनियुक्ति (६६) जहा खरो चंदनभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु. नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए ॥
जिस प्रकार चन्दन का भार उठानेवाला गधा केवल भार ढ़ोनेवाला है, उसे चन्दन की सुगन्ध का कोई पता नहीं चलता। इसी प्रकार चारित्रशून्य ज्ञानी केवल ज्ञान का भार ढोता है, उसे सद्गति की प्राप्ति नहीं होती।
-आवश्यकनियुक्ति (१००) संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिश्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।
संयोग-सिद्धि फलदायी होती है। एक पहिये से रथ कभी नहीं चलता। जैसे अंधा और पंगु मिलकर वन के दावानल से पार होकर नगर में सुरक्षित पहुँच गए, वैसे ही साधक भी ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मुक्ति-लाभ प्राप्त करते हैं।
-आवश्यकनियुक्ति ( १०२) ___ न नाणमित्तेण कज्जनिष्फत्ती । जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती।
-आवश्यक नियुक्ति ( ११५१) णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो अन्नाणी। वह ज्ञानी भी अज्ञानी है, जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता है ।
-निशीथभाष्य (४७६१) ११८ ]
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org