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अबुहा बुहाण मज्झे पढंति जे छंदलक्खणविहूणा । ते भमुहाखग्गणिवाडियं पि सीलं न लक्खति ॥
जब विद्वान् विरस और अशुद्ध काव्य पाठ से ऊबकर भौंहें टेढ़ी करने लगते हैं, उस समय उनके कटाक्ष से मानों उन मूर्खों के शिर ही कट जाते हैं, परन्तु वे इतना भी नहीं जान पाते ।
-वजालग्ग ( ३ / १२ )
वरं अरण्णवासो अ, मा कुमित्ताण संगओ ।
जंगल में वास करना श्रेष्ठ है, परन्तु कुमित्र की संगति अच्छी नहीं हैं । -सम्बोधसत्तरी ( ५ )
आम और नीम दोनों के मूल जमीन में से आम भी नीमपन को प्राप्त करता है । सज्जन भी दुर्जन हो जाता है ।
अंबरस य निंबस्स य, दुण्हंपि समागयाई मूलाई । संसग्गेण विणट्ठो, अंबो निबत्तणं पत्तो ॥
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कुसंग
एकत्रित होने से नीम के संसर्ग अर्थात् दुर्जन की संगत से प्रायः
नहि मुलगाणं संगो, होइ सुहो सह बिडालीहि ॥
चूहों का बिल्ली के साथ संगत करना मृत्यु की गोद में सोना है । - इन्द्रियपराजयशतक ( ५४ )
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- सम्बोधसत्तरी ( ६२ )
सरसा विदुमा दावाणलेण, डज्झंति सुक्खसंवलिया । दुजणसंगे पत्ते सुयणो सुहं न पावे ॥
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शुष्क काष्ठों से मिलकर सरस वृक्ष भी दावानल में दग्ध हो जाते हैं । सचमुच, दुर्जन के संसर्ग में सुजन भी सुख नहीं पाता ।
- वज्जालग्ग ( ५ / १५ )
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