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ही सुख मानता है, उसी तरह विषयों की अशुचि में फंसा जीव भी विषयों में ही आनन्द मानता है ।
-इन्द्रियपराजयशतक (६०) चिट्ठति विसयविवसा, मुत्तुं लज्जंपि के वि गयसंका। न गणंति के वि मरणं, विसयंकुससल्लिया जीवा।।
विषयों में परवश हुए अनेक जीव तो मरने की शंका और लज्जा को भी छोड़कर विषय के वश बनकर जीते हैं तथा विषय रूपी अंकुश के घाव से जो ग्रस्त हैं, ऐसे अनेक जीव तो मृत्यु की परवाह भी नहीं करते।
-इन्द्रियपराजयशतक (६३) जे गिद्ध कामभोगेसु एगे कूडाय गच्छई । जो कामभोग में लोलुप बन जाते हैं वे कूट (हिंसा, मिथ्या भाषण आदि) पथ पर गमन करते हुए हिचकिचाते ही नहीं हैं ।
-उत्तराध्ययन (५/५)
कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दोग्गई। जो मनुष्य काम-भोगों को चाहते तो हैं, किन्तु परिस्थिति विशेष से उनका सेवन नहीं कर पाते हैं, वे भी दुर्गति में जाते हैं ।
___-उत्तराध्ययन (६/५३) दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ।
विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करता है, जैसे स्वादिष्ट फलवाले वृक्ष को पक्षी ।
-उत्तराध्ययन (३२/१०) न कामभोगा समयं उवेन्ति, न यावि भोगा विगई उवेन्ति । जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥
काम-भोग न समभाव लाते हैं और न विकृति लाते हैं। जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है ।
-~~-उत्तराध्ययन (३२/१०१) ६२ ]
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