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कामाणुगिद्धिप्पभवं खु. दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स।
जं काइयं माणसियं च किंचि । सब जीवों का, और क्या देवताओं का भी जो कुछ शारीरिक एवं मानसिक दुःख है, वह काम-भोगों की सतत् अभिलाषा से उत्पन्न होता है ।
-उत्तराध्ययन (३२/१६)
दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए। दुर्जय काम-भोगों का सदैव त्याग करो।
-उत्तराध्ययन (१६/१४) गिद्धोवमे उ नच्चाणं, कामे संसारवड्ढणे ।
उरगो सुवण्णपासे व, संकमाणो तणुं बरे ॥ संसार को बढ़ानेवाले काम-भोगों को गीध के समान जानकर उनसे वैसे ही शंकित होकर चलना चाहिये, जैसे कि गरुड़ के समीप सांप शंकित होकर चलता है।
-उत्तराध्ययन (१४/४७) छारस्स कए नासन्ति चन्दणं मोत्तियं च दोरत्थे। तह मणुय भोग-मूढा नरा वि नासन्ति देविड्ढि ॥
जैसे मूर्ख व्यक्ति राख के लिए चन्दन और डोरे के लिए मोती को नष्ट करते हैं, वैसे ही मानवीय भोगों में मूढ़ मनुष्य जीवन की दिव्य उपलब्धियों को तुच्छ वस्तुओं के लिए नाश करते हैं ।
पउमचरियं ( ४/५०)
कामासक्त
कामेसु गिद्धा निचयं करेंति । काम-भोगों में आसक्त मनुष्य कर्मों का बन्धन करते हैं ।
-आचाराङ्ग ( १/३/२) ६° ]
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