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द्वितीयकाण्डम् १७३
मानववर्गः ७ ऊरोः सन्धिर्वक्षणः स्या त्पादायप्रपदे समे ॥८८॥ क्रमः पादः पदध्रिश्च चरणोऽस्त्री समा इमे। नरवरोऽपि नखोऽस्त्री, ना करेरुह पुनर्भवौ ॥८९॥ पञ्चशास्वकरेऽङ्गुष्ठे तर्जन्यादि चतसृभिः । साकं तते तत्तदन्त-र्देशाः स्युः क्रमशस्त्विमे ॥९॥ प्रादेशतालगोकर्णा वितस्ति दिशाङ्गुलः । द्वयोश्चपेटः प्रतलः पुंसि पाणौ तताऽगुलौ ॥९॥ वामश्च दक्षिणः पाणिः संहतौ विततौ यदि । तयोर्यः प्रतल: सस्याद् नाम्ना सिहतलः स्मृतः॥९२॥
(१) कटिदेश समिप उरुसन्धि का एक नाम- वहण १ पु० । (२) चरण के अग्रभाग के दो नाम- पादान १ प्रपद २ नपुं० । (३) चरण के पांच नाम-क्रम १ पाद२ पद ३ मड़ घ्रि४ पु०, चरण ५ पु०न'. । (४)नख के चार नाम-नखर १ नख२ पु.नपुं०, करेरुह ३ पुनर्भव ४पु०। (५)पञ्चागुलि वाले हाथ के अङ्गुष्ठ को तर्जनी के साथ फैलाकर जो माप होगा उसको 'प्रादेश' १ पु०, मध्यमा के साथ 'ताल' २ पु. अनामिका के साथ 'गोकर्ण' ३ पु०, कनिष्ठिका के साथ । 'वितस्ति' ४ स्त्री० पु० दशांगुल ५ पु० । (६)एक हाथ के अङ्गुलियों को प्रसारित किया जाय उसके दो नाम-चपेट १ पुं०स्त्री, प्रतल २ पु० । (७) दाहिने और वाम दोनों बाहु. को साथ करके यदि विस्तृत किया जाय तो उस माप के दो नाम- प्रतल १ सिंहतल (संहतल) २ पु०।
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