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आराधना कथाकोश
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अरि मित्र, महल मसान, कंचन काँच, निन्दन थुतिकरन । अर्घावतारन असिप्रहारन मैं सदा समता धरन ॥ वे क्या कभी ऐसे उपसर्गोंसे विचलित होते हैं ? नहीं । पाण्डवोंको शत्रुओंने लोहेके गरम-गरम भूषण पहना दिये । अग्निकी भयानक ज्वाला उनके शरीरको भस्म करने लगी। पर वे विचलित नहीं हुए । धैर्यके साथ उन्होंने सब उपसर्ग सहा । जैन साधुओंका यही मार्ग है कि वे आये हुए कष्टों को शान्तिसे सहें और वे ही यथार्थ साधु हैं। जिनका हृदय दुर्बल है, जो रागद्वेषरूपो शत्रुओंको जीतनेके लिए ऐसे कष्ट नहीं सह सकते, दुःखों के प्राप्त होने पर समभाव नहीं रख सकते, वे न तो अपने आत्महितके मार्ग में आगे बढ़ पाते हैं और न वे साधुपद स्वीकार करने योग्य हो सकते हैं ।
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मिथिलामें श्रुतसागर मुनिको निमित्तज्ञानसे इस उपसर्गका हाल मालूम हुआ । उनके मुँहसे बड़े कष्टके साथ वचन निकले - हाय ! हाय इस समय मुनियों पर बड़ा उपसर्ग हो रहा है। वहीं एक पुष्पदन्त नामक क्षुल्लक भी उपस्थित थे । उन्होंने मुनिराजसे पूछा – प्रभो, यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है ? उत्तर में श्रुतसागर मुनि बोले- हस्तिनापुरमें सात सौ मुनियोंका संघ ठहरा हुआ है। उसके संरक्षक अकम्पनाचार्य हैं । उस सारे संघपर पापी बलिके द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है ।
क्षुल्लकने फिर पूछा - प्रभो, कोई ऐसा उपाय भी है, उपसर्ग दूर हो ?
मुनि ने कहा- हाँ उसका एक उपाय है । श्रीविष्णुकुमार मुनिको विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई । वे अपनी ऋद्धिके बलसे उपसर्गको रोक सकते हैं ।
जिससे यह
पुष्पदन्त फिर एक क्षणभर भी वहाँ न ठहरे और जहाँ विष्णुकुमार मुनि तपश्चर्या कर रहे थे, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उन्होंने सब हाल विष्णुकुमार मुनिसे कह सुनाया । विष्णुकुमारको ऋद्धि प्राप्त होने की पहले खबर नहीं हुई थी। पर जब पुष्पदन्तके द्वारा उन्हें मालूम हुआ, तब उन्होंने परीक्षाके लिये एक हाथ पसारकर देखा । पसारते ही उनका हाथ बहुत दूरतक चला गया । उन्हें विश्वास हुआ । वे उसी समय हस्तिनापुर आये और अपने भाईसे बोले - भाई, आप किस नींदमें सोते हुए हो ? जानते हो, शहर में कितना बड़ा भारी अनर्थ हो रहा है ? अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? क्या पहले किसी ने भी अपने कुलमें ऐसा
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