________________
वारिषेण मुनिको कथा
६७ खड़ा देखकर भौंचकसे रह गये । वे उसे उस अवस्थामें देखकर हँसे और बोले-वाह, चाल तो खूब खेली गई ? मानों में कुछ जानता ही नहीं। मुझे धर्मात्मा जानकर सिपाही छोड़ जायेंगे। पर याद रखिये हम अपने मालिककी सच्ची नौकरी खाते हैं । हम तुम्हें कभी नहीं छोड़ेंगे! यह कह कर वे वारिषेणको बाँधकर श्रेणिकके पास ले गये और राजासे बोलेमहाराज, ये हार चुराकर लिए जाते थे, सो हमने इन्हें पकड़ लिया।
सुनते ही श्रेणिकका चेहरा क्रोधके मारे लाल सुर्ख हो गया, उनके ओठ काँपने लगे, आँखोंसे क्रोधकी ज्वालायें निकलने लगीं। उन्होंने गरजकर कहा-देखो, इस पापीका नीच कर्म जो श्मशानमें जाकर ध्यान करता है और लोगोंको, यह बतलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ, ठगता है, धोखा देता है। पापी ! कूल कलंक ! देखा मैंने तेरा धर्मका ढोंग ! सच है-दुराचारी, लोगोंको धोखा देने के लिए क्या-क्या अनर्थ नहीं करते ? जिसे मैं राज्यसिंहासन पर बैठाकर संसारका अधीश्वर बनाना चाहता था, मैं नहीं जानता था कि वह इतना नीच होगा? इससे बढ़कर और क्या कष्ट हो सकता है ? अच्छा तो जो इतना दुराचारी है और प्रजाको धोखा देकर ठगता है उसका जोता रहना सिवा हानिके लाभदायक नहीं हो सकता। इसलिये जाओ इसे ले जाकर मार डालो।
अपने खास पुत्रके लिये महाराजकी ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्र लिखेसे होकर महाराजकी ओर देखने लगे। सबकी आँखोंमें पानी भर आया। पर किसकी मजाल जो उनकी आज्ञाका प्रतिवाद कर सके। जल्लाद लोग उसी समय वारिषेणको बध्यभूमिमें ले गये। उनमेंसे एकने तलवार खींचकर बड़े जोरसे वारिषेणकी गर्दनपर मारी, पर यह क्या आश्चर्य ? जो उसकी गर्दनपर बिलकूल घाव नहीं हुआ; किन्तु वारिषेणको उलटा यह जान पड़ा-मानो किसीने उसपर फूलोंकी माला फैकी है। . जल्लाद लोग देखकर दांतोंमें अँगुली दबा गये। वारिषेणके पुण्यने उसकी रक्षा की। सच है
अहो पुण्येन तीव्राग्निर्जलत्वं याति भूतले, समुद्रः स्थलतामेति दुर्विषं च सुधायते । शत्रुमित्रत्वमाप्नोति विपत्तिः सम्पदायते, तस्मात्सुखैषिणो भव्याः पुण्यं कुर्वन्तु निर्मलम् ।।
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-पुण्यके उदयसे अग्नि जल बन जाती है, समुद्र स्थल हो जाता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org