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आराधना कयाकोश वे तीर्थयात्राके लिये चल दिये । वे यात्रा करते हुए दक्षिण मथुरामें आये। उन्हें पुण्यसे वहाँ गुप्ताचार्यके दर्शन हुए । आचार्यसे चन्द्रप्रभने धर्मोपदेश सुना। उनके उपदेशका उनपर बहुत असर पड़ा । वे आचार्य के द्वाराप्रोक्तः परोपकारोऽत्र महापुण्याय भूतले ।
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-परोपकार करना महान् पुण्यका कारण है, यह जानकर , और तीर्थयात्रा करनेके लिये एक विद्याको अपने अधिकारमें रखकर क्षुल्लक बन गये।
एक दिन उनकी इच्छा उत्तरमथुराकी यात्रा करने की हुई । जब वे जानेको तैयार हुए तब उन्होंने अपने गुरु महाराजसे पूछा-हे दयाके समुद्र, मैं यात्राके लिये जा रहा हूँ, क्या आपको कुछ समाचार तो किसीके लिये नहीं कहना है ? गुप्ताचार्य बोले-मथुरा में एक सूरत नामके बड़े ज्ञानो और गुणी मुनिराज हैं, उन्हें मेरा नमस्कार कहना और सम्यग्दृष्टिनी धर्मात्मा रेवतीके लिये मेरो धर्मवृद्धि कहना ।
क्षुल्लकने और पूछा कि इसके सिवा और भी आपको कुछ कहना है क्या ? आचार्य ने कहा नहीं । तब क्षुल्लकने विचारा कि क्या कारण है जो आचार्यने एकादशांगके ज्ञाता श्रीभव्यसेन मुनि तथा और-और मुनियोंको रहते उन्हें कुछ नहीं कहा और केवल सूरत मुनि और रेवतीके लिये ही नमस्कार किया तथा धर्मवृद्धि दो ? इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिये । अस्तु। जो कुछ होगा वह आगे स्वयं मालूम हो जायगा। यह सोचकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक वहाँसे चल दिये। उत्तरमथुरा पहुँचकर उन्होंने सूरत मुनिको गुप्ताचार्यकी वन्दना कह सुनाई । उससे सूरत मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चन्द्रप्रभके साथ खूब वात्सल्यका परिचय दिया। उससे चन्द्रप्रभको बड़ी खुशी हुई । बहुत ठीक कहा है
ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः। सार्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले ॥
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-संसारमें उन्हींका जन्म लेना सफल है जो धर्मात्माओंसे वात्सल्य-प्रेम करते हैं।
इसके बाद क्षुल्लक चन्द्रप्रभ एकादशांगके ज्ञाता, पर नाम मात्रके भव्यसेन मुनिके पास गये। उन्होंने भव्यसेनको नमस्कार किया। पर
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