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आराधना कथाकौश
शरीर विकृत हो उसकी यह हालत होनेपर भी जब वह राजद्वारपर पहुँचा महाराज उद्दायनकी उसपर दृष्टि पड़ी तब वे उसी समय सिंहासन से कर आये और बड़ी भक्तिसे उन्होंने उस छली मुनिका आह्वान किया। इसके बाद नवधा भक्तिपूर्वक हर्ष के साथ राजाने मुनिको प्राक आहार कराया । राजा आहार कराकर निवृत्त हुए कि इतनेमें उस कपटी मुनिने अपनी मायासे महा दुर्गन्धित वमन कर दिया । उसकी असह्य दुर्गन्धके मारे जितने और लोग पास खड़े हुए थे, वे सब भाग खड़े हुए; किन्तु केवल राजा और रानी मुनिकी सम्हाल करनेको वहीं रह गये । रानी मुनिका शरीर पोंछनेको उसके पास गई । कपटी मुनिने उस बेचारीपर भी महा दुर्गन्धित उछाट कर दी । राजा और रानीने इसकी कुछ परवा न कर उलटा इस बातपर बहुत पश्चात्ताप किया कि हमसे मुनिकी प्रकृति विरुद्ध न जाने क्या आहार दे दिया गया, जिससे मुनिराजको इतना कष्ट हुआ । हम लोग बड़े पापी हैं । इसीलिये तो ऐसे उत्तम पात्रका हमारे यहाँ निरन्तराय आहार नहीं हुआ । सच है जैसे पापी लोगोंको मनोवांछित देनेवाला चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष प्राप्त नहीं होता, उसी तरह सुपात्र के दानका योग भी पापियोंको नहीं मिलता है । इस प्रकार अपनी आत्मनिन्दा कर और अपने प्रमादपर बहुत - बहुत खेद प्रकाश कर राजा रानीने मुनिका सब शरीर जलसे धोकर साफ किया । उनकी इस प्रकार अचलभक्ति देखकर देव अपनी माया समेटकर बड़ी प्रसन्नताके साथ बोला - राजराजेश्वर, सचमुच हो तुम सम्यग्दृष्टि हो, महादानी हो । निर्विचिकित्सा अंगके पालन करनेमें इन्द्रने जैसी तुम्हारी प्रशंसा की थी, वह अक्षर-अक्षर ठीक निकली, वैसा ही मैंने तुम्हें देखा । वास्तव में तुम होने जैनशासनका रहस्य समझा है । यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे बिना और कौन मुनिकी दुर्गन्धित उछाट अपने हाथोंसे उठाता ? राजन् ! तुम धन्य हो, शायद ही इस पृथ्वीमंडलपर इस समय तुम सरीखा सम्यग्दृष्टियों में शिरोमणि कोई होगा ? इस प्रकार उद्दायनकी प्रशंसा कर देव अपने स्थानपर चला गया और राजा फिर अपने राज्यका सुखपूर्वक पालन करते हुए दान, पूजा, व्रत आदिमें अपना समय बिताने
लगे ।
इसी तरह राज्य करते-करते उद्दायनका कुछ और समय बीत गया । एक दिन वे अपने महलपर बैठे हुए प्रकृतिकी शोभा देख रहे थे कि इतने में एक बड़ा भारो बादलका टुकड़ा उनकी आँखोंके सामनेसे निकला । वह थोड़ी हो दूर पहुँचा होगा कि एक प्रबल वायुके वेगने उसे देखते-देखते
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