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आराधना कथाकोश
दया करके मुझे दीक्षा दिलवा दीजिये। पुत्रीकी बात सुनकर प्रियदत्त बहत दुःखी हुआ, पर अब उसने उससे घरपर चलनेको विशेष आग्रह न करके केवल इतना कहा कि-पुत्री, तेरा यह नवीन शरोर अत्यन्त कोमल है और दीक्षाका पालन करना बड़ा कठिन है उसमें बड़ी-बड़ी कठिन परीषह सहनी पड़ती है। इसलिये अभी कुछ दिनोंके लिये मन्दिर हीमें रहकर अभ्यास कर और धर्मध्यान पूर्वक अपना समय बिता। इसके बाद जैसा तू चाहती है, वह स्वयं ही हो जायगा। प्रियदत्तने इस समय दोक्षा लेनेसे अनन्तमतीको रोका, पर उसके तो रोम-रोममें वैराग्य प्रवेश कर गया था; फिर वह कैसे रुक सकती थी? उसने मोहजाल तोड़कर उसी समय पद्मश्री आर्यिकाके पास जिनदीक्षा ग्रहण कर ही ली। दोक्षित होकर अनन्तमती खूब दृढ़ताके साथ तप तपने लगी। महिना-महिनाके उपवास करने लगी, परोषह सहने लगी। उसकी उमर और तपश्चर्या देखकर सबको दाँतोंतले अंगुली दबानी पड़ती थी। अनन्तमतोका जबतक जीवन रहा तबतक उसने बड़े साहससे अपने व्रतको निवाहा । अन्तमें वह संन्यासमरण कर सहस्रार स्वर्गमें जाकर देव हुई। वहाँ वह नित्य नये रत्नोंके स्वर्गीय भूषण पहरतो है, जिनभगवान्की भक्तिके साथ पूजा करती है, हजारों देव देवाङ्गनायें उसकी सेवा में रहती हैं। उसके ऐश्वर्यका पार नहीं और न उसके सुख होकी सीमा है । बात यह है कि पुण्यके उदयसे क्या-क्या नहीं होता ? ____ अनन्तमतीको उसके पिताने केवल विनोदसे शीलवत दे दिया था। पर उसने उसका बड़ी दृढ़ताके साथ पालन किया, कर्मोके पराधीन सांसारिक सुखकी उसने स्वप्नमें भी चाह नहीं की। उसके प्रभावसे वह स्वर्गमें जाकर देव हुई, जहाँ सुखका पार नहीं। वहाँ वह सदा जिनभगवान्के चरणोंमें लीन रह कर बड़ी शान्तिके साथ अपना समय बिताती है । सती-शिरोमणि अनन्तमती हमारा भी कल्याण करे ।
८. उदायन राजाकी कथा संसार-श्रेष्ठ जिनभगवान्, जिनवाणी और जैन ऋषियोंको नमस्कार कर उद्दायन राजाकी कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यक्त्वके तीसरे निर्विचिकित्सा अंगका पालन किया है।
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