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जिनपूजन-प्रभाव-कथा
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रासायनिक लोग अपना मन चाहा रस लाभ कर होते हैं। वे समवसरणमें पहंचे । भगवान्के उन्होंने दर्शन किये और उत्तमसे उत्तम द्रव्योंसे उनको पूजा की । अन्तमें उन्होंने भगवान्के गुणोंका गान किया।
हे भगवन, हे दयाके सागर, ऋषि-महात्मा आपको ‘अग्नि' कहते हैं, इसलिये कि आप कर्मरूपी ईंधनको जला कर खाक कर देनेवाले हैं। आप होको वे 'मेघ' भी कहते हैं, इसलिये कि आप प्रागियों को जलानेवालो दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दावाग्निको क्षणभरमें अपने उपदेश रूपी जलसे बुझा डालते हैं। आप 'सूरज' भी हैं, इसलिये कि अपने उपदेशरूपो किरणोंसे भव्यजनरूपी कमलोंको प्रफुल्लित कर लोक और अलोकके प्रकाशक हैं। नाथ, आप एक सर्वोत्तम वैद्य हैं, इसलिये कि धन्वन्तरीसे वैद्योंकी दवा दारूसे भी नष्ट न होनेवाली ऐसी जन्म, जरा, मरण रूपो महान् व्याधियों को जड़ मूलसे खो देते हैं। प्रभो, आप उत्तमोत्तम गुणरूपो जवाहरातके उत्पन्न करनेवाले पर्वत हो, संसारके पालक हो, तीनों लोकके अनमोल भूषण हो, प्राणी मात्रके निःस्वार्थ बन्धु हो, दुःखोंके नाश करनेवाले हो और सब प्रकारके सुखोंके देनेवाले हो । जगदीश ! जो सूख आपके पवित्र चरणोंकी सेवासे प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकारके कठिनसे कठिन परिश्रम द्वारा भी प्राप्त नहीं होता। इसलिये हे दयासागर, मुझ गरोबको-अनाथको अपने चरणोंको पवित्र और मुक्तिका सुख देनेवाली भक्ति प्रदान कीजिये। जबतक कि मैं संसारसे पार न हो जाऊँ। इस प्रकार बड़ो देर तक श्रेणिकने भगवान्का पवित्र भावोंसे गुणानुवाद किया। बाद वे गौतम गणधर आदि महर्षियोंको भक्तिसे नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गये।
भगवान्के दर्शनोंके लिये भवदत्ता सेठानी भी गई। आकाशमें देवोंका जय-जयकार और दुन्दुभी बाजोंकी मधुर-मनोहर आवाज सुनकर उस मेंढकको जाति स्मरण हो गया। वह भो तब बावड़ीमें से एक कमलकी कलोको अपने मुँहमें दबाये बड़े आनन्द और उल्लासके साथ भगवानकी पूजाके लिये चला। रास्तेमें आता हुआ वह हाथोके पैर नीचे कुचला जाकर मर गया। पर उसके परिणाम त्रिलोक्य पूज्य महावीर भगवानको पूजामें लगे हुए थे, इसलिये वह उस पूजाके प्रेमसे उत्पन्न होनेवाले पुण्यसे सौधर्म स्वर्गमें महद्धिक देव हुआ। देखिये, कहाँ तो वह मेंढक और कहाँ अब स्वर्गका देव ! पर इसमें आश्चर्यको कोई बात नहीं। कारण जिनभगवान्की पूजासे सब कुछ प्राप्त हो सकता है।
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