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औषधिदानको कथा अपनो शक्तिके अनुसार व्रत, तप, शील, संयमादिका पालन करती और धर्मात्मा सत्पुरुषोंका अत्यन्त प्रेमके साथ आदर-सत्कार करती । और सच है, पुण्योदयसे जो उन्नति हुई, उ का फल तो यही है कि सामियोंसे प्रेम हो, हृदयमें उनके प्रति उच्च भाव हो । वृषभसेना अपना जो कर्तव्य था, उसे पूरा करती, भक्तिसे जिनधर्मको जितनी बनती उतनी सेवा करती और सुखसे रहा करती थी।
राजा उग्रसेनके यहाँ बनारसका राजा पृथिवीचन्द्र कैद था। और वह अधिक दुष्ट था । पर उग्रसेनका तो तब भी यहो कर्तव्य था कि वे अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार ब्याहके समय उसे भी छोड़ देते । पर ऐसा उन्होंने नहीं किया । यह अनुचित हुआ। अथवा यों कहिये कि जो अधिक दुष्ट होते हैं उनका भाग्य ही ऐसा होता है जो वे मौके पर भी बन्धन मुक्त नहीं हो पाते।
पृथिवीचन्द्रकी रानीका नाम नारायणदत्ता था। उसे आशा थी कि उग्रसेन अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार वृषभसेनाके साथ ब्याहके समय मेरे स्वामीको अवश्य छोड़ देंगे। पर उसको वह आशा व्यर्थ हई । पृथिवीचन्द्र तब भी न छोड़े गये । यह देख नारायणदत्ताने अपने मंत्रियोंसे सलाह ले पृथिवीचन्द्रको छुड़ानेके लिए एक दूसरी हो युक्ति की और उसमें उसे मनचाही सफलता भी प्राप्त हुई। उसने अपने यहाँ वृषभसेनाके नामसे कई दानशालाएँ बनवाई। कोई विदेशी या स्वदेशी हो सबको उनमें भोजन करनेको मिलता था। इन दानशालाओंमें बढ़ियासे बढ़िया छहों रसमय भोजन कराया जाता था। थोड़े ही दिनोंमें इन दानशालाओंकी प्रसिद्धि चारों ओर हो गई। जो इनमें एक बार भी भोजन कर जाता वह फिर इनकी तारीफ करने में कोई कमी न करता था। बड़ी-बड़ी दूरसे इनमें भोजन करनेको लोग आने लगे । कावेरीके भी बहुतसे ब्राह्मण यहाँ भोजन , कर जाते थे। उन्होंने इन शालाओंको बहुत तारीफ को।
रूपवतीको इन वृषभसेनाके नामसे स्थापित की गई दानशालाओंका हाल सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही उसे वृषभसेना पर इस बातसे बड़ा गुस्सा आया कि मुझे बिना पूछे उसने बनारसमें ये शालाएँ बनवाई ही क्यों ? और इसका उसने वृषभसेनाको उलाहना भी दिया । वृषभसेनाने तब कहा-माँ, मुझ पर तुम व्यर्थ ही नाराज होती हो। न तो मैंने कोई दानशाला बनारसमें बनवाई और न मुझे उनका कुछ हाल हो मालूम है । यह सम्भव हो सकता है कि किसीने मेरे नामसे उन्हें बनाया
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