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समन्तभद्राचार्यकी कथा
२७ आप इसको चिन्ता न करें, यह मूर्ति यदि फट पड़ेगी तो इसे फट पड़ने दीजिये, पर आपको तो नमस्कार करना ही पड़ेगा। राजाका बहत ही आग्रह देख आचार्यने "तथास्तु" कहकर कहा, अच्छा तो कल प्रातःकाल ही मैं अपनी शक्तिका आपको परिचय कराऊँगा। 'अच्छी बात है, यह कहकर राजाने आचार्यको मन्दिरमें बन्द करवा दिया और मन्दिरके चारों ओर नंगी तलवार लिये सिपाहियोंका पहरा लगवा दिया। इसके बाद "आचार्यकी सावधानीके साथ देखरेख की जाय, वे कहीं निकल न भागें" इस प्रकार पहरेदारोंको खूब सावधानकर आप राजमहल लौट गये । ___ आचार्यने कहते समय तो कह डाला, पर अब उन्हें खयाल आया कि मैंने यह ठीक नहीं किया। क्यों मैंने बिना कुछ सोचे-विचारे जल्दीसे ऐसा कह डाला! यदि मेरे कहनेके अनुसार शिवजीकी मूर्ति न फटी तब मुझे कितना नीचा देखना पड़ेगा और उस समय राजा क्रोधमें आकर न जाने क्या कर बैठे ! खैर, उसकी भी कुछ परवा नहीं, पर इससे धर्मकी कितनो हँसी होगी। जिस परमात्माकी राजाके सामने मैं इतनी प्रशंसा कर चुका हूँ, उसे और मेरी झूठको देखकर सर्व साधारण क्या विश्वास करेंगे, आदि एक पर एक चिन्ता उनके हृदयमें उठने लगी। पर अब हो भी क्या सकता था। आखिर उन्होंने यह सोचकर कि जो होना था वह तो हो चुका और कुछ बाकी है वह कल सबेरे हो जायगा, अब व्यर्थ चिन्तासे ही लाभ क्या । जिनभगवान्की आराधना में अपने ध्यानको लगाया और बड़े पवित्र भावोंसे उनकी स्तुति करने लगे।
आचार्यकी पवित्र भक्ति और श्रद्धाके प्रभावसे शासनदेवीका आसन कम्पित हुआ। वह उसी समय आचार्यके पास आई और उनसे बोली"हे जिनचरणकमलोंके भ्रमर ! हे प्रभो! आप किसी बातकी चिन्ता न कीजिये । विश्वास रखिये कि जैसा आपने कहा है वह अवश्य ही होगा। आप "स्वयंभुवाभूतहितेन भूतले" इस पद्यांशको लेकर चतुर्विशति तीथंकरोंका एक स्तवन रचियेगा। उसके प्रभावसे आपका हुआ सत्य होगा और शिवर्मित भी फट पड़ेगी। इतना कहकर अम्बिका देवी अपने स्थानपर चली गई।
आचार्यको देवीके दर्शनसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके हृदयको चिन्ता मिटी, आनन्दने अब उसपर अपना अधिकार किया। उन्होंने उसी समय देवीके कहे अनुसार एक बहुत सुन्दर जिनस्तवन बनाया, जो कि इस समय "स्वयंभूस्तोत्रके" नामसे प्रसिद्ध है।
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