________________
रात्रिभोजन-त्याग कथा
४०३ अन्तिम शरीर है। अब त कर्मोंका नाश कर मोक्ष जायगा। इसलिए सत्पुरुषोंका कर्तव्य है कि वे कष्ट समयमें व्रतोंकी दृढ़तासे रक्षा करें।" मुनिराज द्वारा प्रीतिकरका यह पूर्व जन्मका हाल सुन उपस्थित मंडलीकी जिनधर्म पर अचल श्रद्धा हो गई। प्रीतिंकरको अपने इस वृत्तान्तसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसने जैनधर्मकी बहत प्रशंसा की और अन्तमें उन स्वपरोपकारके करनेवाले मुनिराजोंको भक्तिसे नमस्कार कर व्रतोंके प्रभावकी हृदयमें विचारता हुआ वह घर पर आया।
मुनिराजके उपदेशका उस पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसे अब संसार अथिर, विषयभोग दुःखोंके देनेवाले, शरीर अपवित्र वस्तुओंसे भरा, महा घिनौना और नाश होनेवाला, धन-दौलत बिजलीकी तरह चंचल और केवल बाहरसे सुन्दर देख पड़नेवाली तथा स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु आदि ये सब अपने आत्मासे पृथक् जान पड़ने लगे। उसने तब इस मोहजालको, जो केवल फंसाकर संसारमें भटकानेवाला है, तोड़ देना ही उचित समझा। इस शुभ संकल्पके दृढ़ होते ही पहले प्रीतिकरने अभिषेक पूर्वक भगवान्को सब सुखों को देनेवाली पूजा को, खूब दान किया और दुखी, अनाथ, अपाहिजोंकी सहायता की। अन्तमें वह अपने प्रियंकर पूत्रको राज्य देकर अपने बन्धु, बान्धवोंकी सम्मतिसे योग लेनेके लिए विपुलाचल पर भगवान् वर्द्धमानके समवशरण में गया और उन त्रिलोक पूज्य भगवान्के पवित्र दर्शन कर उसने भगवान्के द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इसके बाद प्रीतिकर मुनिने खूब दुःसह तपस्या की और अन्तमें शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। अब वे लोकालोकके सब पदार्थोंको हाथकी रेखाओंके समान साफ-साफ जानने देखने लग गये । उन्हें केवलज्ञान प्राप्त किया सुन विद्याधर, चक्रवर्ती, स्वर्गके देव आदि बड़े-बड़े महापुरुष उनके दर्शन-पूजनको आने लगे। प्रीतिकर भगवान्ने तब संसारतापको नाश करनेवाले परम पवित्र उपदेशामतसे अनेक जीवोंको . दुःखोंसे छुटाकर सुखी बनाये । अन्तमें अघातिया कर्मोका नाश कर वे परम धाम-मोक्ष सिधार गये। आठ कर्मोंका नाश कर आठ आत्मिक महान् शक्तियोंको उन्होंने प्राप्त किया। अब वे संसारमें न आकर अनन्त काल तक वहीं रहेंगे। वे प्रीतिंकर स्वामी मुझे शांति प्रदान करें। 'प्रीतिकरका यह पवित्र और कल्याण करनेवाला चरित आप भव्यजनोंको और मुझे सम्यग्ज्ञानके लाभका कारण हो । यह मेरो पवित्र भावना है।
एक अत्यन्त अज्ञानी पशुयोनिमें जन्मे सियारने भगवान्के पवित्र धमका थोड़ा सा आश्रय पा अर्थात् केवल रात्रि-भोजन-त्याग व्रत स्वीकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org