________________
रात्रिभोजन-त्याग कथा
४०१
आदतें हैं । कुल, जाति, धन, जन, शरीर सुख, कीर्ति, मान-मर्यादा आदिकी नाश करनेवाली हैं । श्रावकोंको इन सबका दूरसे ही काला मुंह कर देना चाहिये । इसके विा जलका छानना, पात्रोंको भक्तिपूर्वक दान देना, श्रावकोंका कर्तव्य होना चाहिए । ऋषियोंने पात्र तीन प्रकार बतलाये हैं। उत्तम पात्र-मुनि, मध्यम पात्र-व्रती श्रावक और जघन्य पात्र-अविरत-सम्यग्दृष्टि । इनके सिवा कुछ लोग और ऐसे हैं, जो दानपात्र होते हैं-दुःखी, अनाथ, अपाहिज आदि, जिन्हें कि दयाबुद्धिसे दान देना चाहिये । पात्रोंको जो थोड़ा भी दान देते हैं उन्हें उस दानका फल बटबीजकी तरह अनन्त गुणा मिलता है। श्रावकोंके और भी आवश्यक कर्म हैं, जैसे-स्वर्ग मोक्षके सुखकी कारण जिन भगवान्की जलादि द्रव्यों द्वारा पूजा करना, दूध, दही, घी, सांठेका रस आदिसे अभिषेक करना, जिन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा कराना, तीर्थयात्रा करना आदि। ये सब सुखके कारण और दुर्गतिके दुःखोंके नाश करनेवाले हैं। इस प्रकार धार्मिक जीवन बना कर अन्तमें भगवान्का स्मरण-चितन पूर्वक संन्यास लेना चाहिये । यही जीवनके सफलताका सोधा और सच्चा मार्ग है । इस प्रकार मुनिराज द्वारा धर्मका उपदेश सुनकर बहुतेरे सज्जनोंने व्रत, नियमादिको ग्रहण किया जैनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई । प्रोतिकरने मुनिराजको नमस्कार कर पुनः प्रार्थना की-हे करुणाके समुद्र योगिराज कृपाकर मुझे मेरे पूर्वभवका हाल सुनाइए। मुनिराजने तब यों कहना शुरू किया___"प्रीतिकर, इसी बगीचे में पहले तपस्वी सागरसेन मुनि आकर ठहरे थे। उनके दर्शनोंके लिये राजा वगैरह प्रायः सब ही नगर निवासी बड़े गाजे-बाजे और आनन्द उत्सवके साथ आये थे। वे मुनिराजकी पूजा-स्तुति कर वापिस शहरमें चले गये । इसी समय एक सियारने इनके गाजे-बाजेके शब्दोंको सुनकर यह समझा कि ये लोग किसी मुर्देको डाल कर गये हैं । सो वह उसे खानेके लिए आया । उसे आता देख मुनिने अवधिज्ञानसे जान लिया कि यह मुर्देको खानेके अभिप्रायसे इधर आ रहा है। पर यह है भव्य और व्रतोंको धारण कर मोक्ष जायगा। इसलिये इसे सुलटाना आवश्यक है । यह विचार कर मुनिराजने उसे समझाया-अज्ञानो पश, तुझे मालूम नहीं कि पापका परिणाम बहुत ही बुरा होता है । देख, पापके ही फलसे तुझे आज इस पर्यायमें आना पड़ा और फिर भी तू पाप करनेसे मुंह न मोड़कर मुर्देको खानेके लिए इतना व्यग्र हो रहा है, यह
२६ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org