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रात्रिभोजन त्याग कथा
यह विचार कर उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं स्वयं कुछ न कमा लूंगा तब तक ब्याह न करूँगा । प्रतिज्ञाके साथ ही वह विदेशके लिये रवाना हो गया । कुछ वर्षों तक विदेशमें हो रहकर इसने बहुत धन कमाया | खूब कीर्ति अर्जित की। इसे अपने घर से गए कई वर्ष बीत गये थे, इसलिये अब इसे अपने माता-पिताकी याद आने लगी । फिर यह बहुत " दिनों बाहर न रहकर अपना सब माल असबाब लेकर घर लौट आया । सच है पुण्यवानों को लक्ष्मी थोड़े ही प्रयत्नसे मिल जाती है । प्रीतिकर अपने माता-पिता से मिला । सबहीको बहुत आनन्द हुआ। जयसेनका प्रीतिंकरकी पुण्यवानी और प्रसिद्धि सुनकर उस पर अत्यन्त प्रेम हो गया । उन्होंने तब अपनी कुमारी पृथिवोसुन्दरी, और एक दूसरे देशसे आई हुई वसुन्धरा तथा और भी कई सुन्दर-सुन्दर राजकुमारियोंका ब्याह इस महाभागके साथ बड़े ठाट-बाटसे कर दिया। इसके साथ जयसेनने अपना आधा राज्य भी इसे दे दिया । प्रीतिकरके राज्य प्राप्ति आदिके सम्बन्धको विशेष - कथा यदि जानना हो तो महापुराणका स्वाध्याय करना चाहिये ।
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प्रीतिकरको पुण्योदयसे जो राज्यविभूति प्राप्त हुई उसे सुखपूर्वक भोगने लगा। उसके दिन आनन्द उत्सव के साथ बीतने लगे। इससे यह न समझना चाहिये कि प्रीतिकर सदा विषयों में ही फँसा रहता है । वह धर्मात्मा भी सच्चा था । क्योंकि वह निरन्तर जिन भगवान्की अभिषेक पूजा करता, जो कि स्वर्ग या मोक्षका सुख देनेवाली और बुरे भावों या पापकर्मोंका नाश करनेवाली है । वह श्रद्धा, भक्ति आदि गुणोंसे युक्त हो पात्रोंको दान देता, जो दान महान् सुखका कारण है । वह जिनमन्दिरों, तीर्थक्षेत्रों, जिन प्रतिमाओं आदि सप्त क्षेत्रोंकी, जो कि शान्तिरूपो धनके प्राप्त कराने के कारण हैं, जरूरतों को अपने धनरूपी जल वर्षासे पूरी करता, परोपकार करना उसके जीवनका एक मात्र उद्देश्य था । वह स्वभावका बड़ा सरल था । विद्वानोंसे उसे प्रेम था । इस प्रकार इस लोक सम्बन्धी और पारमार्थिक कार्यों में सदा तत्पर रहकर वह अपनी प्रजाका पालन करता रहता था । प्रीतिकरका समय इस प्रकार बहुत सुखसे बीतता था । एक बार सुप्रतिष्ठ पुरके सुन्दर बगीचे में सागरसेन नामके मुनि आकर ठहरे थे । उनका वहीं स्वर्गवास हो गया था। उनके बाद फिर इस 'बगीचे में आज चारणऋद्धि धारी ऋजुमति और विपुलमति मुनि आये । प्रीतिकर तब बड़े वैभव के साथ भव्यजनों को लिये उनके दर्शनों को गया । मुनिराज की चरणोंकी आठ द्रव्योंसे उसने पूजा की और नमस्कार कर
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