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रात्रिभोजन-त्याग-कथा
३९७ लोकों में सुखी होते हैं, यशस्वी होते हैं, दीर्घायु होते हैं, कान्तिमान होते हैं और उन्हें सब सम्पदाएँ तथा शान्ति मिलती है, और जो लोग रात में भोजन करने वाले हैं, वे दरिद्री होते हैं, जन्मान्ध होते हैं अनेक रोग और व्याधियाँ उन्हें सदा सताए रहती हैं, उनके संतान नहीं होती। रातमें भोजन करनेसे छोटे जीव जन्तु नहीं दिखाई पड़ते । वे खानेमें आ जाते हैं । उससे बड़ा पापबन्ध होता है । जीवहिंसा का पाप लगता है। माँस का दोष लगता है। इस लिए रात्रि भोजनका छोड़ना सबके लिए हितकारी है। और खासकर उन लोगों को तो छोड़ना हो चाहिए जो माँस नहीं खाते । ऐसे धर्मात्मा श्रावकों को दिन निकले दो घड़ी बाद सबेरे और दो घड़ी दिन बाकी रहे तब शाम को भोजन वगैरहसे निवृत्त हो जाना चाहिए । समन्तभद्रस्वामीका भी ऐसा ही मत है-"रात्रि भोजन का त्याग करनेवालेको सबेरे और शाम को आरम्भ और अन्त में दो दो घड़ी छोड़कर भोजन करना चाहिए।" जो नैष्ठिक श्रावक नहीं हैं उनके लिए पान, सुपारी, इलायची, जल और पवित्र औषधि आदिक विशेष दोषके कारण नहीं हैं। इन्हें छोड़कर और अन्नकी चीजें या मिठाई, फलादिक ये सब कष्ट पड़ने पर भी कभी न खाना चाहिए । जो भव्य जीवन भरके लिए चारों प्रकारके आहार का रात में त्याग कर देते हैं उन्हें वर्षभरमें छह माहके उपवासका फल होता है। रात्रिभोजन को त्याग करने से प्रीतिकर कुमारको फल प्राप्त हुआ था, उसकी विस्तृत कथा अन्य ग्रन्थोंमें प्रसिद्ध है । यहाँ उसका सार लिखा जाता है।
मगध में सुप्रतिष्ठपुर अच्छा प्रसिद्ध शहर था। अपनी सम्पत्ति और सुन्दरतासे वह स्वर्गसे टक्कर लेता था । जिनधर्म का वहाँ विशेष प्रचार था । जिस समय की यह कथा है, उस समय उसके राजा जयसेन थे। जयसेन धर्मज्ञ, नीतिपरायण और प्रजाहितैषी थे।
यहाँ धनमित्र नामका एक सेठ रहता था। इसकी स्त्रीका नाम धनमित्रा था। दोनोंही की जैनधर्म पर अखण्ड प्रीति थी। एक दिन सागरसेन नामके अवधिज्ञानी मुनिको आहार देकर इन्होंने उनसे पूछाप्रभो! हमें पूत्रसुख होगा या नहीं? यदि न हो तो हम व्यर्थकी आशासे अपने दुर्लभ मनुष्य जीवनको संसारके मोह-मायामें फंसा रखकर, उसका क्यों दुरुपयोग करें? फिर क्यों न हम पापोंके नाश करनेवाली पवित्र जिनदीक्षा ग्रहण कर आत्महित करें ? मुनिने इनके प्रश्नके उत्तरमें कहा-हाँ अभी तुम्हारी दीक्षाका समय नहीं आया। कुछ दिन गृहवासमें
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