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________________ ८८ आराधना कथाकोश पाठकोंको स्मरण होगा कि जब श्रेणिकको उसके पिता उपश्रेणिकने देश बाहर हो जानेकी आज्ञा दी थी और श्रेणिक उसके अनुसार राजगृहसे निकल गया था तब उसे सबसे पहले रास्तेमें यही नन्दगाँव पड़ा था। पर यहाँके लोगोंने राजद्रोहके भयसे श्रेणिकको गाँवमें आने नहीं दिया था। श्रेणिक इससे उन लोगों पर बड़ा नाराज हुआ था। इस समय उन्हें उनकी उस असहानुभूतिकी सजा देनेके अभिप्रायसे श्रेणिकने उन पर एक हक्मनामा भेजा और उसमें लिखा कि "आपके गाँवमें एक मीठे पानीका कुंआ है । उसे बहुत जल्दी मेरे यहाँ भेजो, अन्यथा इस आज्ञाका पालन न होनेसे तुम्हें सजा दी जायगी।" बेचारे गाँवके रहनेवाले स्वभावसे डरपौंक ब्राह्मण राजाके इस विलक्षण हुक्मनामेको सुनकर बड़े घबराये । जो ले जानेकी चीज होती है वही ले-जाई जाती है, पर कुँआ एक स्थानसे अन्य स्थान पर कैसे-ले जाया जाय ? वह कोई ऐसी छोटी-मोटी वस्तु नहीं जो यहाँसे उठाकर वहाँ रख दी जाय । तब वे बड़ी चिन्तामें पड़े। क्या करें, और क्या न करें, यह उन्हें बिलकुल न सूझ पड़ा, न वे राजाके पास ही जाकर कह सकते हैं कि-महाराज, यह असम्भव बात कैसे हो सकती है ! कारण गाँवके लोगोंमें इतनी हिम्मत कहाँ ? सारे गाँवमें यही एक चर्चा होने लगी। सबके मुंह पर मुर्दनी छा गई। और बात भी ऐसी ही थी। राजाज्ञा न पालने पर उन्हें दण्ड भोगना चाहिये। यह चर्चा घरों घर हो रही थी कि इसी समय अभयकुमार यहाँ आ पहँचा, जिसका कि जिकर ऊपर आ चुका है। उसने इस चर्चाका आदि अन्त मालूम कर गाँवके सब लोगोंको इकट्ठा कर कहा-इस साधारण बातके लिये आप लोग ऐसी चिन्तामें पड़ गये। घबराने करनेकी कोई बात नहीं। मैं जैसा कहूँ वैसा कीजिये। आपका राजा उससे खुश होगा। तब उन लोगोंने अभयकुमारकी सलाहसे श्रेणिककी सेवामें एक पत्र लिखा। उसमें लिखा कि-"राजराजेश्वर, आपकी आज्ञाको सिर पर चढ़ाकर हमने कुँएसे बहुत-बहुत प्रार्थनायें कर कहा कि-महाराज तुझ पर प्रसन्न हैं । इसलिये वे तुझे अपने शहरमें बुलाते हैं, तू राजगृह जा ! पर महाराज, उसने हमारी एक भी प्रार्थना न सुनी और उलटा रूठकर गाँव बाहर चल दिया । सो हमारे कहने सुननेसे तो वह आता नहीं देख पड़ता। पर हाँ उसके ले जानेका एक उपाय है और उसे यदि आप करें तो सम्भव है वह रास्ते पर आ जाये। वह उपाय यह है कि पुरुष स्त्रियोंका गुलाम होता है, स्त्रियों द्वारा वह जल्दी वश हो जाता है । इसलिये आप अपने शहरकी उदुम्बर नामकी कुईको इसे लेनेको भेजें तो अच्छा हो। बहुत विश्वास है कि उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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