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आराधना कथाकोश इस बातका बड़ा दुःख हुआ, बल्कि मुनि पर उन्हें अत्यन्त घृणा हुई, कि मुनिका मैंने इतना उपकार किया तब भी उन्होंने मेरे सम्बन्धमें तारीफका एक शब्द भी न कहा ! इससे उन्होंने मुनिको बड़ा कृतघ्न समझ उनकी बहुत निन्दी की, बुराई की। इस मुनिनिन्दासे उन्हें बहुत पापका बन्ध हुआ। अन्तमें जब उनकी मृत्यु हुई तब वे इस पापके फलसे नर्मदाके किनारे पर एक बन्दर हुए । सच है, अज्ञानियोंको साधुओंके आचारविचार, व्रतनियमादिकोंका कुछ ज्ञान तो होता नहीं और व्यर्थ उनकी निन्दा-बुराई कर वे पापकर्म बाँध लेते हैं। इससे उन्हें दुःख उठाना पड़ता है।
एक दिनकी बात है कि यह जीवक वैद्यका जीव बन्दर जिस वृक्ष पर बैठा हुआ था, उसके नीचे यही सुव्रत मुनिराज ध्यान कर रहे थे। इस समय उस वृक्षकी एक टहनी टूट कर मुनि पर गिरी । उसकी तीखी नोंक जाकर मुनिके पेटमें घुस गई। पेटका कुछ हिस्सा चिरकर उससे खून बहने लगा। मुनि पर जैसे ही उस बन्दरकी नजर पड़ी उसे जातिस्मरण हो गया। वह पूर्व जन्मको शत्रुता भूलकर उसी समय दौड़ा गया और थोड़ी ही देरमें और बहुतसे बन्दरोंको बुला लाया। उन सबने मिलकर उस डालीको बड़ी सावधानीसे खींचकर निकाल लिया। और वैद्यके जीवने पूर्व जन्मके संस्कारसे जंगलसे जड़ी-बूटी लाकर उसका रस मुनिके घाव पर निचोड़ दिया। उससे मुनिको कुछ शान्ति मिली। इस बन्दरने भी इस धर्मप्रेमसे बहुत पुण्यबंध किया। सच है, पूर्व जन्मोंमें जैसा अभ्यास किया जाता है, जैसा पूर्व जन्मका संस्कार होता है दूसरे जन्मोंमें भी उसका संस्कार बना रहता है और प्रायः जीव वैसा ही कार्य करने लगता है।
बन्दरमें-एक पशमें इस प्रकार दयाशीलता देखकर मुनिराजने अवधिज्ञान द्वारा तो उन्हें जीवक वैद्यके जन्मका सब हाल ज्ञात हो गया । उन्होंने तब उसे भव्य समझकर उसके पूर्वजन्मकी सब कथा उसे सुनाई और धर्मका उपदेश किया। मुनिकी कृपासे धर्मका पवित्र उपदेश सुनकर धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा हो गई। उसने भक्तिसे सम्यक्त्व-व्रत पूर्वक अणुव्रतोंको ग्रहण किया। उन्हें उसने बड़ी अच्छी तरह पाला भी। अन्तमें वह सात दिनका संन्यास ले मरा । इस धर्मके प्रभावसे वह सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ। सच है, जैनधर्मसे प्रेम करनेवालोंको क्या प्राप्त नहीं होता । देखिए, यह धर्मका ही तो प्रभाव था जिससे कि एक बन्दर
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