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धरसेनाचार्यको कथा
३५१ जो सत्पुरुष भगवान्के उपदेश किये पवित्र और पुण्यमय ज्ञानका अभ्यास करेंगे वे फिर मोह उत्पन्न करनेवाले प्रमादको न कर सुख देनेवाले जिनपूजा, दान, व्रत, उपवासादि धार्मिक कामोंमें अपनी बुद्धिको लगाकर केवलज्ञानका अनन्तसुख प्राप्त करेंगे।
६६. धरसेनाचार्यको कथा उन जिन भगवान्को नमस्कार कर, जिनका कि केवलज्ञान एक सर्वोच्च नेत्रकी उपमा धारण करनेवाला है, होनाधिक अक्षरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली धरसेनाचार्यकी कथा लिखी जाती है।
गिरनार पर्वतकी एक गुहामें श्रीधरसेनाचार्य, जो कि जैनधर्मरूप समुद्रके लिये चन्द्रमाकी उपमा धारण करनेवाले हैं, निवास करते थे। उन्हें निमित्तज्ञानसे जान पड़ा कि उनकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। तब उन्हें दो ऐसे विद्यार्थियोंकी आवश्यकता पड़ी कि जिन्हें वे शास्त्रज्ञानको रक्षाके लिए कुछ अंगादिका ज्ञान करा दें। आचार्यने तब तीर्थयात्राके लिए आन्ध्रदेशके वेनातट नगरमें आये हुए संघाधिपति महासेनाचार्यको एक पत्र लिखा । उसमें उन्होंने लिखा___ "भगवान् महावीरका शासन अचल रहे, उसका सब देशोंमें प्रचार हो। लिखनेका कारण यह है कि इस कलियुगमें अंगादिका ज्ञान यद्यपि न रहेगा तथापि शास्त्रज्ञानकी रक्षा हो, इसलिये कृपाकर आप दो ऐसे बद्धिमान् विद्यार्थियोंको मेरे पास भेजिये, जो बुद्धिके बड़े तीक्ष्ण हों, स्थिर हों, सहनशील हों और जैनसिद्धान्तका उद्धार कर सकें।
आचार्यने पत्र देकर एक ब्रह्मचारीको महासेनाचार्यके पास भेजा। महासेनाचार्य उस पत्रको पढ़कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तब अपने संघमें से पुष्पदन्त और भूतबलि ऐसे दो धर्मप्रेमी और सिद्धान्तके उद्धार करनेमें समर्थ मुनियोंको बड़े प्रेमके साथ धरसेनाचार्यके पास भेजा । ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्यके पास पहुंचने वाले थे, उसकी पिछली रातको धरसेनाचार्यको एक स्वप्न देख पड़ा । स्वप्नमें उन्होंने दो हृष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलोंको बड़ी भक्तिसे अपने पांवोंमें पड़ते देखा । इस उत्तम स्वप्नको देखकर आचार्यको जो प्रसन्नता हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वे ऐसा कहते हुए, कि सब सन्देहोंके नाश करनेवाली श्रुतदेवी-जिनवाणी सदा
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