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कालाध्ययनकी कथा
८७. कालाध्ययनकी कथा
जिनका ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है और संसारसमुद्रसे पार करनेवाला है, उन जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर उचित कालमें शास्त्राध्ययन कर जिसने फल प्राप्त किया उसकी कथा लिखी जाती है ।
जैनतत्त्व के विद्वान् वीरभद्र मुनि एक दिन सारी रात शास्त्राभ्यास करते रहे । उन्हें इस हालत में देखकर श्रुतदेवी एक अहीरनोका वेष लेकर उनके पास आई । इसलिये कि मुनिको इस बातका ज्ञान हो जाय कि यह समय शास्त्रों के पढ़ने पढ़ानेका नहीं है। देवी अपने सिर पर छाछकी मटकी रखकर और यह कहती हुई, कि लो, मेरे पास बहुत ही मोठी छाछ है, मुनिके चारों ओर घूमने लगी । मुनिने तब उसकी ओर देखकर कहाअरी, तू बड़ी बेसमझ जान पड़ती है, कहीं पगली तो नहीं हो गई है । बतला तो ऐसे एकान्त स्थानमें और सो भी रातमें कौन तेरी छाछ खरीदेगा ? उत्तर में देवीने कहा - महाराज क्षमा कीजिये। मैं तो पगली नहीं हैं; किन्तु मुझे आप ही पागल देख पड़ते हैं । नहीं तो ऐसे असमय में, जिसमें पठन-पाठनकी मना है, आप क्यों शास्त्राभ्यास करते ? देवीका उत्तर सुनकर मुनि जी की आँखें खुलीं । उन्होंने आकाशकी ओर नजर उठाकर देखा तो उन्हें तारे चमकते हुए देख पड़े। उन्हें मालूम हुआ कि अभी बहुत रात है । तब वे पढ़ना छोड़कर सो गये ।
सबेरा होने पर वे अपने गुरु महाराजके पास गये और अपनी इस क्रियाकी आलोचना कर उनसे उन्होंने प्रायश्चित्त लिया। अब से वे शास्त्राभ्यासका जो काल है उसीमें पठन-पाठन करने लगे । उन्हें अपनी गल्तीका सुधार किये देखकर देवी उनसे बहुत खुश हुई। बड़ी भक्तिसे उसने उनकी पूजा की। सच है, गुणवानों की सभी पूजा करते हैं ।
इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्रका यथार्थ पालन कर वीरभद्र मुनिराज अन्त समय में धर्म-ध्यानसे मृत्यु लाभ कर स्वर्गधाम सिधारे । भजनों को भी उचित है कि वे जिन भगवान् के उपदेश किए, संसारको अपनी महत्तासे मुग्ध करनेवाले, स्वर्ग या मोक्षकी सर्वोच्च सम्पदा को देनेवाले, दुःख, शोक, कलंक आदि आत्मा पर लगे हुए कीचड़को धो देनेवाले, संसारके पदार्थोंका ज्ञान कराने में दीयेकी तरह काम देनेवाले और सब प्रकारके सांसारिक सुखके आनुषंगिक कारण ऐसे पवित्र ज्ञानको भक्ति से प्राप्त कर मोक्षका अविनाशी सुख लाभ करें ।
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