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आत्मनिन्दा करनेवालीको कथा ८४ आत्मनिन्दा करनेवालीकी कथा चारों प्रकारके देवों द्वारा पूजे जानेवाले जिन भगवान्को नमस्कार कर उस स्त्रीकी कथा लिखी जाती है कि जिसने अपने किये पापकर्मोकी आलोचना कर अच्छा फल प्राप्त किया है।
बनारसके राजा विशाखदत्त थे। उनकी रानीका नाम कनकप्रभा था। इनके यहाँ एक चितेरा रहता था। इसका नाम विचित्र था। यह चित्रकलाका बड़ा अच्छा जानकार था। चितेरेकी स्त्रीका नाम विचित्रपताका था। इसके बुद्धिमती नामकी एक लड़की थी। बुद्धिमती बड़ी सुन्दरी और चतुर थी।
एक दिन विचित्र चितेरा राजाके खास महलमें, जो कि बड़ा सुन्दर था, चित्र कर रहा था। उसकी लड़की बुद्धिमती उसके लिए भोजन लेकर आई। उसने विनोद वश हो भींत पर मोरकी पींछीका एक चित्र बनाया। वह चित्र इतना सुन्दर बना कि सहसा कोई न जान पाता कि वह चित्र है। जो उसे देखता वह यही कहता कि यह मोरको पीछी है। इसी समय महाराज विशाखदत्त इस ओर आ गये। वे उस चित्रको मोरको पोंछी समझ उठानेको उसको ओर बढ़े। यह देख बुद्धिमतीने समझा कि महाराज बे समझ हैं। नहीं तो इन्हें इतना भ्रम नहीं होता।
दूसरे दिन बुद्धिमतीने एक और अद्भुत चित्र राजाको बतलाते हुए अपने पिताको पुकारा-पिताजी, जल्दो आइए, भोजन की जवानीका समय बीत रहा है । बुद्धिमतीके इन शब्दोंको सुनकर राजा बड़े अचम्भेमें पड़ गया । वह उसके कहनेका कुछ भाव न समझ कर एक टकटकी लगाये उसके मुंहकी ओर देखता रह गया। राजाको अपना भाव न समझा देख बुद्धिमतीको उसके मूर्ख होनेका और दृढ़ विश्वास हो गया। ___अबकी बार बुद्धिमतीने और ही चाल चली। एक भीत पर दो पड़दे लगा दिये और राजाको चित्र बतलानेके बहानेसे उसने एक पड़दा उठाया। उसमें चित्र न था । तब राजा उस दूसरे पड़देको ओर चित्रकी आशासे आँखें फाड़कर देखने लगा। बुद्धिमतीने दूसरा पड़दा भी उठा दिया । भीतपर चित्रको न देखकर राजा बड़ा शर्मिदा हुआ। उसकी इन चेष्टाओंसे उसे पूरा मूर्ख समझ बुद्धिमतीने जरा हँस दिया । राजा और भी अचम्भेमें पड़ गया। वह बुद्धिमतो का कुछ भी अभिप्राय न समझ सका। उसने तब व्यग्र हो बुद्धिमती से ऐसा करनेका कारण पूछा।
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