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शकटाल मुनिको कथा
३२७ मंत्रीके बहकानेमें आकर गुस्सेसे उसी समय एक नौकरको आज्ञा की कि वह जाकर शकटालको जानसे मार आवे । सच है, मुर्ख पुरुष दुर्जनों द्वारा उस्केरे जाकर करने और न करने योग्य भले-बुरे कार्यका कुछ विचार न कर अन्याय कर ही डालते हैं । शकटाल मुनिने जब उस घातक मनुष्यको अपनी ओर आते देखा तब उन्हें विश्वास हो गया कि यह मेरे ही मारनेको आ रहा है और यह सब कर्म मन्त्री वररुचिका है। अस्तु, जब तक वह घातक शकटाल मुनिके पास पहुँचता है उसके पहले ही उन्होंने सावधान होकर संन्यास ले लिया। घातक अपना काम पूरा कर वापिस लौट गया। इधर शकटाल मुनिने समाधिसे शरीर त्याग कर स्वर्ग लाभ किया। सच है, दुष्ट पुरुष अपनी ओरसे कितनी ही दुष्टता क्यों न करे, पर उससे सत्पुरुषोंको कुछ नुकसान न पहुँच कर लाभ ही होता है। । परन्तु जब नन्दको यह सब सच्चा हाल ज्ञात हुआ और उसने सब बातोंकी गहरी छान-बीनकी तब उसे मालूम हो गया कि शकटाल मुनिका कोई दोष न था, वे सर्वथा निरपराध थे। इसके पहले जैनमुनियोंके सम्बन्धमें जो उसकी मिथ्या धारण हो गई थी और उन पर जो उसका बेहद क्रोध हो रहा था उस सबको हृदयसे दूर कर वह अब बड़ा हो पछताया। अपने पाप कर्मोंकी उसने बहुत निन्दा की। इसके बाद वह श्रीमहापद्म मुनिके पास गया । बड़ी भक्तिसे उसने उनकी पूजा-वन्दना की और सुखके कारण पवित्र जैनधर्मका उनके द्वारा उपदेश सुना । धर्मोपदेशका उसके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा । उसने श्रावकोंके व्रत धारण किये। जैनधर्म पर अब इसकी अचल श्रद्धा हो गई। ____ इस जीवको जब कोई बुरी संगति मिल जाती है तब तो यह बुरेसे बुरे पापकर्म करने लग जाता है और जब अच्छे महात्मा पुरुषोंकी संगति मिलती है तब यही पुण्य-पवित्र कर्म करने लगता है। इसलिए भव्यजनोंको सदा ऐसे महापुरुषोंकी संगति करना चाहिए जो संसारके आदर्श हैं
और जिनकी सत्संगतिसे स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त हो सकता है। ___ इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूपी रत्नोंकी सुन्दर मालाको प्रभाचन्द्र आदि पूर्वाचार्योने शास्त्रोंका सार लेकर बनाया है, जो ज्ञानके समुद्र और सारे संसारके जीव मात्रका हित करनेवाले थे। उन्हींकी कृपासे मैंने इस आराधनारूपी मालाको अपनी बुद्धि और शक्तिके अनुसार बनाया है । यह माला भव्यजनोंको और मुझे सुख दे।
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