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आराधना कथाकोश पुण्यके प्रभावसे इसके पास धन सम्पत्ति खूब थी। इसको स्त्रीका नाम वृषभदत्ता था । इसके वृषभसेन नामका सर्वगुण-सम्पन्न एक पुत्र था। वृषभसेन बड़ा धर्मात्मा और सदा दान-पूजादिक पुण्यकर्मोंका करनेवाला था।
वृषभसेनके मामा धनपतिकी स्त्री श्रीकान्ताके एक लड़की थी। इसका नाम धनश्री था। धनश्री सुन्दरी थी, चतुर थी और लिखी-पढ़ी थी । धनश्रीका ब्याह वृषभसेनके साथ हुआ था। दोनों दम्पति सुखसे रहते थे । नाना प्रकारके विषय-भोगोंकी वस्तुएँ उनके लिये सदा हाजिर रहती थीं।
एक दिन वृषभसेन दमधर मुनिराजके दर्शनोंके लिये गया। भक्ति सहित उनकी पूजा-वन्दना कर उसने उनसे धर्मका पवित्र उपदेश सुना। उपदेश उसे बहुत रुचा और उसका प्रभाव भी उसपर बहुत पड़ा। वह उसी समय संसार और भ्रमसे सुख जान पड़नेवाले विषय-भोगोंसे उदासीन हो मुनिराजके पास आत्महितको साधक जिनदोक्षा ले गया। उसे युवावस्थामें ही दीक्षा ले जानेसे धनश्रीको बड़ा दुःख हुआ। उसे दिन-रात रोनेके सिवा कुछ न सूझता था । धनश्रीका यह दुःख उसके पिता धनपतिसे न सहा गया। वह तपोवनमें जाकर वृषभसेन को उठा लाया और जबरदस्ती उसकी दीक्षा वगैरह खण्डित कर दी, उसे गृहस्थ बना दिया । सच है, मोही पुरुष करने और न करने योग्य कामोंका विचार न कर उन्मत्तकी तरह हर एक काम करने लग जाता है, जिससे कि पापकर्मोका उसके तीव्र बन्ध होता है।
जैसे मनुष्यको कैदमें जबरदस्ती रहना पड़ता है उसी तरह वृषभसेनको भी कुछ समय तक और घरमें रहना पड़ा। इसके बाद वह फिर मुनि हो गया। इसका फिर मुनि हो जाना जब धनपतिको मालूम हुआ तो किसी बहानेसे घर पर लाकर अबकी बार उसे उसने लोहेको साँकलसे बाँध दिया। मुनिने यह सोचकर, कि यह मुझे अबको बार फिर व्रतरूपी पर्वतसे गिरा देगा, मेरा व्रत भंग कर देगा, संन्यास ले लिया और इसी अवस्थामें शरीर छोड़कर वह पुण्यके उदयसे स्वर्गमें देव हुआ। दुर्जनों द्वारा सत्पुरुषोंको कितने ही कष्ट क्यों न पहुँचाये जायँ पर वे कभी पापबन्धके कारण कामोंमें नहीं फँसते ।
दुर्जन पुरुष चाहे कितनी ही तकलीफ क्यों न दें, पर पवित्र बुद्धि के धारी सज्जन महात्मा पुरुष तो जिन भगवान्के चरणोंकी सेवा-पूजासे होनेवाले पुण्यसे सुख ही प्राप्त करेंगे। इसमें तनिक भो सन्देह नहीं।
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