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आराधना कथाकोश
जैन साधुओं का यह हितभरा उत्तर राजाको बड़ा बुरा लगा और लगना ही चाहिए; क्योंकि पापियोंको हित की बात कब सुहाती है ? राजाने गुस्सा होकर उन मुनियोंको देश बाहर कर दिया और अपनी लड़कीके साथ स्वयं ब्याह कर लिया । सच है, जो पापी हैं, कामी हैं जिन्हें आगामी दुर्गतियों में दुःख उठाना है, उनमें कहाँ धर्म, कहाँ लाज, कहाँ नीति- सदाचार और कहाँ सुबुद्धि ?
कुछ दिनों बाद कृत्तिकाके दो सन्तान हुई । एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्रका नाम रखा कीर्तिकेय और पुत्रीका नाम वीरमती । वीरमती बड़ी खूबसूरत थी । उसका ब्याह रोहेड़ नगरके राजा क्रोंचके साथ हुआ वीरमती वहाँ रहकर सुखके साथ दिन बिताने लगी ।
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इधर कार्तिकेय भी बड़ा हुआ। अब उसकी उम्र कोई १४ वर्ष की हो गई थी। एक दिन वह अपने साथी राजकुमारोंके साथ खेल रहा था । वे सब अपने नानाके यहाँ से आए हुए अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण पहने हुए थे। पूछने पर कार्तिकेयको ज्ञात हुआ कि वे वस्त्राभरण उन सब राजकुमारोंके नाना मामा के यहाँस आए हैं । तब उसने अपनी माँसे जाकर पूछा- क्यों माँ ! मेरे साथी राजपुत्रोंके लिए तो उनके नाना मामा अच्छे-अच्छे वस्त्राभरण भेजते हैं, भला फिर मेरे नाना - मामा मेरे लिए क्यों नहीं भेजते हैं ? अपने प्यारे पुत्रकी ऐसी भोली बात सुनकर कृत्तिका का हृदय भर आया । आँखों से आँसू बह चले | अब वह उसे क्या कहकर समझाये और कहनेको जगह ही कौन-सी बच रही थी । परन्तु अबोध पुत्र के आग्रहसे उसे सच्ची हालत कहनेको बाध्य होना पड़ा । वह रोती हुई बोली- बेटा, मैं इस महापापकी बात तुझसे क्या कहूँ। कहते हुए छाती फटती है । जो बात कभी नहीं हुई, वही बात मेरे तेरे सम्बन्धमें है । वह केवल यही कि जो मेरे पिता हैं वे ही तेरे भी पिता हैं । मेरे पिताने मुझसे बलात् ब्याह कर मेरी जिन्दगी कलंकित की । उसोका तू फल है | कार्तिकेयको काटो तो खून नहीं । उसे अपनी माँका हाल सुनकर बेहद दुःख हुआ । लज्जा और आत्मग्लानिसे उसका हृदय तिलमिला उठा । इसके लिए वह लाइलाज था । उसने फिर अपनी माँसे पछा- तो क्यों माँ ! उस समय मेरे पिताको ऐसा अनर्थ करते किसी ने रोका नहीं, सब कानोंमें तेल डाले पड़े रहे ? उसने कहा- बेटा ! रोका क्यों नहीं ? मुनियोंने उन्हें रोका था, पर उनकी कोई बात नहीं सुनी गई, उलटे वे ही देशसे निकाल दिये गए ।
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