________________
२८६
आराधना कथाकोश कुछ होशियार हुआ तब एक दिन राजाने उससे कहा-बेटा, अब तुम अपने इस राज्यके कारभारको सम्भालो । मैं अब जिन भगवान्के उपदेश किये पवित्र तपको ग्रहण करता है। वही शान्ति प्राप्तका कारण है। वषभसेनते तब कहा-पिताजी, आप तप क्यों ग्रहण करते हैं, क्या परलोक-सिद्धि, मोक्षप्राप्ति राज्य करते हए नहीं हो सकती है ? राजाने कहा-बेटा हाँ, जिसे सच्ची सिद्धि या मोक्ष कहते हैं, वह बिना तप किये नहीं होती। जिन भगवान्ने मोक्षका कारण एक मात्र तप बताया है । इसलिए आत्महित करनेवालोंको उसका ग्रहण करना अत्यन्त ही आवश्यक है । राजपुत्र वृषभसेनने तब कहा-पिताजी, यदि यह बात है तो फिर मैं ही इस दुःखके कारण राज्यको लेकर क्या करूँगा? कृपाकर यह भार मुझ पर न रखिए । राजाने वृषभसेनको बहुत समझाया, पर उसके ध्यानमें तप छोड़कर राज्यग्रहण करनेकी बात बिलकुल न आई । लाचार हो राजा राज्यभार अपने भतीजेको सौंपकर आप पुत्रके साथ जिनदोक्षा ले गये।
यहाँसे वृषभसेन मुनि तपस्या करते हुए अकेले ही देश, विदेशोंमें धर्मोपदेशार्थ घूमते-फिरते एक दिन कौशाम्बीके पास आ एक छोटी-सी पहाड़ी पर ठहरे। समय गर्मीका था। बड़ो तेज धूप पड़ती थी। मुनिराज एक पवित्र शिला पर कभी बैठे और कभी खड़े इस कड़ी धूपमें योग साधा करते थे। उनकी इस कड़ी तपस्या और आत्मतेजसे दिपते हुए उनके शारीरिक सौन्दर्यको देख लोगोंकी उन पर बड़ी श्रद्धा हो गई। जैनधर्म पर उनका विश्वास खूब दृढ़ जम गया। ___एक दिन चारित्रचूड़ामणि श्रीवृषभसेन मुनि भिक्षार्थ शहरमें गये हुये थे कि पीछेसे किसी जैनधर्मके प्रभावको न सहनेवाले बुद्धदास नामके बुद्धधर्मीने मुनिराजके ध्यान करनेकी शिलाको आगसे तपाकर लाल सुर्ख कर दिया । सच है, साधु-महात्माओंका प्रभाव दुर्जनोंसे नहीं सहा जाता । जैसे सूरजके तेजको उल्ल नहीं सह सकता। जब मुनिराज आहार कर पीछे लौटे और उन्होंने शिलाको अग्निकी तपी हुई देखा, यदि वे चाहतेभौतिक शरीरसे उन्हें मोह होता तो बिलाशक वे अपनी रक्षा कर सकते थे। पर उनमें यह बात न थी; वे कर्त्तव्यशील थे, अपनी प्रतिज्ञाओंका पालना वे सर्वोच्च समझते थे। यही कारण था कि वे संन्यासकी शरण ले उस आगसे धधकती शिला पर बेठ गये। उस समय उनके परिणाम इतने ऊँचे चढ़े कि उन्हें शिला पर बैठते हो केवलज्ञान हो गया और उसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org