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सुकुमाल मुनिकी कथा
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स्वप्न में भी कभी दुःख नहीं देखा, वही अब दुःखों का पहाड़ अपने सिर पर उठा लेने को तैयार हो गया । सुकुमाल दोक्षा लेकर वनकी ओर चला । कंकरीली जमोन पर चलनेसे उसके फूलोंसे कोमल पाँवोंमें कंकर पत्थरों के गड़ने से घाव हो गये। उनसे खूनकी धारा बह चली । पर धन्य सुकुमालकी सहनशीलता जो उसने उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं झाँका । अपने कर्तव्य में वह इतना एकनिष्ठ हो गया, इतना तन्मय हो गया कि उसे इस बातका भान हो न रहा कि मेरे शरीरकी क्या दशा हो रही है । सुकुमालकी सहनशीलताकी इतनेमें ही समाप्ति नहीं हो गई। अभी और आगे बढ़िये और देखिये कि वह अपनेको इस परीक्षा में कहाँतक उत्तीर्ण करता है ।
पाँवोंसे खून बहता जाता है और सुकुमाल मुनि चले जा रहे हैं । चलकर वे एक पहाड़की गुफा में पहुँचे । वहाँ वे ध्यान लगाकर बारह भावनाओंका विचार करने लगे । उन्होंने प्रायोपगमन संन्यास एक पाँव से खड़े रहनेका ले लिया, जिसमें कि किसीसे अपनी सेवा-शुश्रूषा भी कराना मना किया है । सुकुमाल मुनि तो इधर आत्म ध्यान में लीन हुए । अत्र जरा इनके वायुभूतिके जन्मको याद कीजिये ।
जिस समय वायुभूतिके बड़े भाई अग्निभूति मुनि हो गये थे, तब इनकी स्त्रीने वायुभूति से कहा था कि देखो, तुम्हारे कारणसे ही तुम्हारे भाई मुनि हो गये सुनती हूँ । तुमने अन्याय कर मुझे दुःख के सागरमें ढकेल दिया । चलो, जब तक वे दीक्षा न ले जाँय उसके पहले उन्हें हम तुम समझा-बुझाकर घर लौटा लावें । इस पर गुस्सा होकर वायुभूतिने अपनी भीको बुरी भी सुना डाली थी, और फिर ऊपरसे उस पर लात भी
मादी थी । तब उसने निदान किया था कि पापी, तूने मुझे निर्बल समझ मेरा जो अपमान किया है, मुझे कष्ट पहुँचाया है, यह ठोक है कि मैं इस समय इसका बदला नहीं चुका सकती । पर याद रख कि इस जन्म में नहीं तो परजन्ममें सही, पर बदला लूंगी ओर घोर बदला लूंगी ।
इसके बाद वह मरकर अनेक कुथोनियों में भटकी । अन्तनें वायुभूति तो यह सुकुमाल हुए और उसकी भौजी सियारनो हुई । जब सुकुमाल मुनि वनको ओर रवाना हुए और उनके पावों में कंकर, पत्थर, काँटे वगैरह लगकर खून बहने लगा, तब यही सियारनी अपने पिल्लों को साथ लिए उस खूनको चाटती चाटती वहीं आ गई जहाँ सुकुमाल मुनि ध्यान में मग्न हो रहे थे । सुकुमालको देखते ही पूर्वजन्म के संस्कारसे सियारनीको
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